पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१२८

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चौथा परिच्छेद


गया। प्राण निकल रहे हैं। चार सालतक सहता आया, अब नहीं सहा जाता। बोलो, तुम मेरी होगी या नहीं?"

कल्याणी-“मैंने तुम्हारे ही मुंहसे सुना था कि सन्तानधर्मका यह नियम है कि जो इंद्रियोंपर वश नहीं रखता उसे प्राण देकर इस पापका प्रायश्चित्त करना पड़ता है। क्या यह बात ठीक है?"

भवा०-"हां, ठीक है।"

कल्याणी-"तब तो, तुम्हारे इस पापका प्रायश्चित्त मृत्यु ही है।"

भवा०-"हां, मेरा प्रायश्चित्त मृत्यु ही है।"

कल्याणी—“यदि मैं तुम्हारी मनोकामना पूर्ण कर दूं, तो तुम प्राण दे डालोगे?

भवा०-"हां, जरूर दे डालूंगा।"

कल्याणी---"और यदि नहीं पूर्ण करू तो?"

भवा०–“यदि नहीं पूर्ण करो तो भी मुझे मरकर इस पापका प्रायश्चित्त करना ही पड़ेगा, पचोंकि मेरा चित्त इद्वियोंका दास हो गया है।"

कल्याणी--"मैं तुम्हारी मनोकामना पूर्ण नहीं करूंगी।

बोलो, तुम कब मरोगे?"

भवाo-"आगामी युद्धमें।"

कल्याणी-“बस तो अब यहांसे चले जाओ। बोलो, मेरी कन्या भेज दोगे या नहीं?"

भवानन्दने आंखोंमें आंसू भरकर कहा,-"ला दूंगा। क्या मेरे मर जानेपर मुझ स्मरण रखोगी?"

कल्याणीने कहा रखूंगी, तुम्हें व्रतच्युत, अधर्मी समझाकर याद किया करूंगी।"

भवानन्द चले गये। कल्याणी पुस्तक पढ़ने लगी।