पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१४४

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दसवां परिच्छेद


बारगी निराश हो गये। क्षण क्षणमें सैकड़ों सन्तान नष्ट होने लगे। तब जीवानन्दने कहा-"भवानन्द! तुम्हारी ही बात ठीक थी। अब बेचारे वैष्णवोंका हार करवाना व्यर्थ है। चलो, हम लोग धीरे-धीरे लौट चलें।"

भवा--"अब कैसे लौट चलोगे? इस समय तो जो पीछे फिरेगा वही जान गवायेगा।"

जीवा०-"सामने और दाहिनी तरफसे हमला हो रहा है। बायीं तरफ कोई नहीं है। चलो, धोरे-धीरे घूमकर बायीं तरफ हो जायँ और उधर-ही-से निकल भागे।"

भवा०-"भागकर कहां जाओगे? उधर नदी है। वर्षाके कारण बहुत उमड़ी हुई है। अगरेजोंके गोलेके डरसे भागकर तो सन्तान-लेना नदी में डूब जायगी।"

जीवा०--"मुझे याद आता है कि उस नदीपर पुल बंधा है।"

भवा०-“यदि उस पुल-परसे यह दस हजार सन्तान-सेना नदी पार करने लगी, तो बड़ी भीड़ हो जायगी। शायद एकही तोपमें सारी सेना सहजमें ही विध्वंस कर दी जायगी।”

जीवा०-"एक काम करो। थोड़ीसी सेना तुम अपने साथ रख लो। इस युद्धमें तुमने जैसी हिम्मत और चतुराई दिखलाई है उससे मुझे मालूम हो गया, कि ऐसा कोई काम नहीं, जो तुम न कर सको। तुम उन्हीं थोड़ेसे सन्तानों के साथ सामनेसे हमला रोको। मैं तुम्हारी सेनाकी आड़में बाकी सन्तानोंको पुल पार करा ले आऊंगा। तुम्हारे साथके सैनिक तो जरूर ही मरेंगे पर मेरे साथवाले अगर बच जायं, तो कोई ताजुब नहीं।"

भवा०-“अच्छा, मैं ऐसा ही करता हूं।"

बस भवानन्दने दो हजार सन्तानोंके साथ एक बार फिर 'वन्देमातरम्' की गगनभेदी ध्वनि करते हुए बड़े उत्साहके साथ अङ्गरेजोंके तोपखानेपर हमला किया। घोर युद्ध छिड़ गया;