पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१५०

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ग्यारहवां परिच्छेद


कप्तान हे और वाटसनने भवानन्दके पास कहला भेजा-"हम सब तुम्हारे कैदी हैं, अब हमारी जानें छोड़ दो।” जीवानन्दने भवानन्दके मुंहकी ओर देखा। भवानन्दने मन-ही-मन कहा-“नहीं, यह तो नहीं होगा। आज तो मैं मरनेके लिये तैयार हूं।" यही सोचकर भवानन्द ऊपरको हाथ उठाये, हरि-हरि कहते हुए बोले-“मारो! मारो इन दुष्टोंको।"

अब तो एक भी प्राणी जीता न बचा। केवल २०१३० गोरे सिपाही एक जगह इकठ्ठे होकर मन-ही-मन आत्मसमर्पण करनेका निश्चय कर, जानपर खेलकर लड़ रहे थे। जीवानन्दने कहा-"भवानन्द! हमारी तो जय हो चुकी, अब लड़नेका कोई काम नहीं है। इन दो-चार व्यक्तियों को छोड़कर और कोई जीता नहीं रहा। इनको प्राणदान दे दो और घर लौट चलो।"

भवानन्दने कहा,-"एकको भी जीता छोड़कर भवानन्द नहीं लौट सकता। जीवानन्द! मैं तुम्हारी सौगन्ध खाकर कहता हूं, तुम अलग हटकर खड़े हो जाओ और तमाशा देखो। मैं अकेला ही इन बचे अंगरेजोंको मार गिराता हूं।"

कप्तान टामस घोड़ेकी पीठपर बंधा था। भवानन्दने हुक्म दिया-"उसे मेरे सामने ले आओ। पहले उसीको जान लूंगा; फिर मैं तो मरूंगा ही।"

कप्तान टामस बंगला अच्छी तरह समझता था। उसने यह बात सुनललकार कर उन अंगरेज़ सिपाहियोंसे कहा-“भाई अगरेजो! मैं तो मरता ही हूं; पर तुम लोग इंग्लैण्डके प्राचीन यशकी रक्षा करना। मैं तुम्हें ईसामसीहकी सौगन्ध देकर कहता हूं कि पहले मुझे मारकर तब इन विद्रोहियोंको मारना।"

इसी समय दायँ से एक पिस्तौल छूटी। एक आइरिशने कप्तान टामसको लक्ष्यकर यह गोली छोड़ी थी। गोली कप्तान टामसके सिरमें लगी। उसके प्राण निकल गये। भवानन्दने ज़ोर-से चिल्लाकर कहा-"मेरा ब्रह्मास्त्र व्यर्थ चला गया। अब कौन