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आनन्द मठ


मृगकी खालसे छिपी हुई थी उम्र अभी बिलकुल ही थोड़ी थी। उसने कहा,-"देखो, डरो मत। मेरे साथ-साथ आओ। तुम कहां जाओगी?"

कल्याणी- "मुझे पदचिह्न जाना है।"

आगन्तुक अचरज आकर चौक पड़ा; बोला,- "क्या कहा? पदचिह्न ?” यह कह, उसने कल्याणोके दोनों कन्धोंपर हाथ रखकर अँधेरे में उनका चेहरा देखना शुरू किया।

अकस्मात् पुरुषका स्पर्श होनेसे कल्याणीकी देहके रोंगटे खड़े हो गये। वह डर गयी, शर्मा गयी, अचरज में पड़ गयी और रोने लगी। वह ऐसी डर गयी, कि उससे भागते भी न बन पड़ा। आगन्तुकने जब अच्छी तरहसे उसे देख-भाल लिया तब कहा,-"हरे मुरारे! अब मैंने तुम्हें पहचाना। तुम वही मुहजली कल्याणी हो न?”

कल्याणीने डरते-डरते पूछा-"आप कौन हैं ?"

आगन्तुकने कहा,-"मैं तुम्हारा दासानुदास हूं। सुन्दरी! मुझपर प्रसन्न हो जाओ।"

बड़ी तेजीके साथ वहांसे हटकर कल्याणीने तनककर कहा,-"क्या इस तरह मेरा अपमान करनेके लिये ही आपने मेरी रक्षा की थी? मैं देख रही हूं , कि आप ब्रह्मचारियोंका-सा वेश बनाये हुए हैं। क्या ब्रह्मचारियोंकी यही करनी है? आज मैं निस्सहाय हो रही हूं, नहीं तो आपके मुहपर लात मारती।"

ब्रह्मचारीने कहा-"अरी मन्द मुसकानवाली! मैं न जाने कबसे तुम्हारे इस सुन्दर शरीरको स्पर्श करनेके लिये तड़प रहा था।" यह कह, ब्रह्मचारीने लपककर कल्याणीको पकड़ लिया और उसे अपने कलेजेसे लगा लिया। अब तो कल्याणी खिलखिलाकर हंस पड़ी और झटपट बोल उठी,-"अरी वाह री मेरी किस्मत! बहन! तुमने पहले ही क्यों नहीं कह दिया कि तुम्हारा भी मेरा ही जैसा हाल है?"