पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१७५

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छठा परिच्छेद


तदनन्तर जीवानन्दके पीछे-पीछे बड़ी तेजीके साथ उस टोलेपर चढ़ने लगे। एकने सजा-सजाया घोड़ा लाकर जीवानन्दको दिया। दूर-ही-से यह सब हाल देखकर महेन्द्र भौंचकसे हो रहे। उनकी समझमें न आया कि ये लोग बिना बुलाये क्यों चले आ रहे है?

यही सोच, महेन्द्रने घोड़े का रुख फेर दिया और चाबुककी मारसे घोड़ेकी पीठका खून निकालते पर्वतसे नीचे उतरने लगे। सन्तान-सेनाके आगे-आगे चलनेवाले जीवानन्दको देखकरन महेन्द्रने पूछा-"आज यह कैसा आनन्द है?"

जीवानन्दने हंसकर कहा- आज तो बड़ा ही आनन्द है। टीलेके उसी पार एडवार्डिस साहब हैं। जो पहले ऊपर चढ़ जायगा, उसीकी जीत होगी।"

यह कह, जीवानन्दने सन्तान-सेनाकी ओर फिरकर कहा, "तुम लोग मुझे पहचानते हो या नहीं? मैं हूं जीवानन्द गोस्वामी। मैंने हजारोंके प्राण ले डाले हैं।"

घोर कोलाहलसे कानन और प्रान्तरको प्रतिध्वनित करते हुए सब-के-सब एक साथ कह उठे-“हाँ, हम लोग आपको पहचानते हैं, आप ही जीवानन्द गोस्वामी हैं।"

जीवा० -“बोलो, हरे मुरारे।"

वह कानन प्रान्तर एक बार सहस्र सहस्र कण्ठोंकी ध्वनिसे गूंज उठा। सब-के-सब एक साथ “हरे मुरारे!" कह उठे।

जीवा-"टीलेके उसी पार शत्रु मौजूद हैं। आज ही इस स्तूप-शिखरपर खड़े होकर हम लोग इस नीलाम्बरी यामिनीके रहते-रहते युद्ध करेंगे। जल्दी आओ; जो पहले शिखरपर चढ़ेगा, "वही जीतेगा। बोलो! वन्देमातरम् ।”

इसके बाद ही कानन प्रान्तर प्रतिध्वनित करता हुआ 'वन्देमातरम्' का गाना गूंज उठा। धीरे-धीरे सन्तान-सेना पर्वत शिखरपर चढ़ने लगी। पर उन लोगोंने एकाएक सभीत होकर