पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७९
सातवां परिच्छेद

लिये हुए सत्यानन्द ब्रह्मचारी शिखरसे समुद्रपातकी तरह उनके ऊपर आ पड़े। बड़ी घनघोर लड़ाई हुई।

जैसे दो बड़े-बड़े पत्थरों के बीच पड़कर छोटी-सी मक्खी पिस जाती है, वैसे ही दोनों सन्तान-सेनाओं के बीच पड़कर राजकीय सेना मसल डाली गयी।

एक भी प्राणो जीता न बचा, जो वारन हेस्टिंग्जके पास संवाद लेकर जाय।




सातवां परिच्छेद

आज पूनो है। वह भीषण रणक्षेत्र इस समय सुनसान हो रहा है। वह घोड़ोंकी उछल-कूद, बन्दूकों की कड़कड़ाहट, तोपोंकी गड़गड़ाहट न रही। जो नीचेसे ऊपरतक धुआं-ही-धुआं नजर आता था, वह कैफियत जारी रही। इस समय न तो कोई 'हुर्रे' कहता है, न हरिध्वनि कर रहा है। केवल स्यार कुत्त और गीध शोर मचाए हुए हैं। इससे भी भीषण वह घायलोंका रह रहकर कराहना है। किसीका हाथ कट गया है, किसीका सिर कट गया है; किसीका पैर ही टूट गया है। कोई बाप-बाप चिल्ला रहा है, कोई पानी मांग रहा है, कोई मौतकी घड़ियां गिन रहा है। बङ्गाली, हिन्दुस्थानी, अंगरेज, मुसलमान-सब साथ ही पड़े हुए हैं। जिन्दों और मुर्दो की, आदमियों और घोड़ोंकी आपस में खूब रेलापेली मची हुई है। उस माघकी पूर्णिमाकी उजियाली रातमें वह रणभूमि बड़ी भयङ्कर मालूम पड़ रही थी। किसीकी उधर जानेको हिम्मत नहीं पड़ती थी।

औरों की भले ही हिम्मत न पड़ती हो; पर आधी रातके समय एक स्त्री उस आगम्य रणक्षत्रमें आकर इधर-उधर घूम रही थी। हाथमें एक मशाल लिये वह उन मुर्दोके ढेर में न जाने किसे ढूंढ रही थी। वह प्रत्येक शवके पास पहुंचकर मशालकी