पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१८५

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आठवां परिच्छेद

यह सुनकर सत्यानन्दको बड़ी मर्मवेदना हुई। वे बोले "प्रभो! यदि हिन्दुओंका राज्य न होगा, तो फिर किसका होगा? क्या फिर मुसलमान ही राजा होंगे?"

महात्मा-"नहीं, अब अंगरेजोंका ही राज्य स्थापित होगा।"

सत्यानन्दकी दोनों आँखोंसे आँसू बहने लगे। वे ऊपर रखी हुई मातृ-स्वरूपिणी मातृभूमिकी प्रतिमाकी ओर फिरकर, हाथ जोड़, रुधे हुए कण्ठसे कहने लगे-"हाय! मां! मुझसे तुम्हारा उद्धार करते न बन पड़ा। तुम फिर म्लेछोंके ही हाथमें जा पड़ोगी। सन्तानोंका अपराध मत समझना। माता! आज रणक्षेत्रमें ही मेरी मृत्यु क्यों न हो गयी?”

महात्माने कहा-"सत्यानन्द! कातर मत हो। तुमने बुद्धि-भ्रममें पड़कर दस्यु-वृत्तिद्वारा धन संग्रह कर लड़ाई जीती है। पापका फल कभी पवित्र नहीं होता। इसलिये तुम लोगोंसे इस देशका उद्धार न हो सकेगा। और जो कुछ होनेवाला है, वह अच्छा ही है। अंगरेजोंका राज्य हुए बिना सनातनधर्मका पुनरुद्धार नहीं हो सकता। महापुरुष लोग जिस तरह सब बातोंको समझा करते हैं, मैं उसी तरह तुम्हें बतलाता हूं, सुनो। तैंतीस करोड़ देवताओं की पूजा करना सनातनधर्म नहीं है। वह तो एक निकृष्ट लौकिक धर्म है। इसीके मारे सच्चा सनातन धर्म-जिसे म्लेच्छगण हिन्दूधर्म कहते हैं लुप्त हो रहा है। 'हिन्दूधर्म ज्ञानात्मक है, क्रियात्मक नहीं, वह ज्ञान दो प्रकारका होता है बाहरी और भीतरी। भीतरी ज्ञान ही सनातनधर्मका प्रधान अङ्ग है, किन्तु जबतक बाहरी ज्ञान नहीं प्राप्त हो जाता तबतक भीतरी ज्ञान उत्पन्न होनेकी सम्भावना ही नहीं रहती। बिना स्थलको जाने, सूक्ष्म नहीं जाना जाता। इस समय इस देशका बाहरी ज्ञान बहुत दिनोंसे लुप्त हो रहा है। इसीलिये सनातनधर्मका भी लोप हो रहा है! सनातनधर्मका पुनरुद्धार करनेके लिये, पहले बाहरी ज्ञान का पचार करना आवश्यक है।