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आनन्द मठ


कल्याणी,-"तुम मुझे कहां ले जाकर रख आते? ऐसा कौन स्थान रह गया है? माँ, बाप सभी तो इस अकाल चक्करमें पड़कर मर गये। फिर मेरे लिये किसके घरमें जगह थी, जहां ले जाते? मुझे कौन सी राह ले जाते, तुम्हीं कहो? मैं तुम्हारे गलेकी फांस थी, मर गयी, बला टली। अब मुझे आशीर्वाद दो, कि मैं मरकर उसी ज्योतिर्मय लोकमें जाऊ और वहीं तुमसे मिलूं।" यह कहकर कल्याणीने फिर स्वामीकी पदरज माथेपर चढ़ायी। महेन्द्र कुछ बोल न सके, फिर रोने लगे। कल्याणी अति मृदु, अति मनोहर, अति स्नेहमय कण्ठसे फिर कहने लगी,-"देवताकी इच्छाको कौन टाल सकता है?उन्होंने मुझे संसारसे विदा होनेकी आज्ञा दी है, अब मैं चाहूं भी तो ठहर नहीं सकती। यदि मैं अपने आप विष खाकर न मरती तो मुझे और ही कोई मारता। इसलिये प्राण देकर मैंने कुछ बुरा काम नहीं किया। तुमने जो व्रत ग्रहण किया है, उसे काय वचन मनसे सिद्ध करो, इससे तुम्हें पुण्य होगा। इसी पुण्यके प्रभावसे मुझ स्वर्ग मिलेगा। फिर हम तुम इकट्ठे हो अनन्त कालतक स्वर्गका सुख भोग करते रहेंगे।" इधर सुकुमारोने एक बार वमन किया, इससे वह कुछ सम्हल गयी। उसके पेट में इतना विष नहीं पहुंचा था, जिससे जान निकल जाती। उस समय महेन्द्रका ध्यान उसकी ओर नहीं था। वे कन्याको कल्याणीको गोदमें रख, दोनोंको गाढ़ आलिङ्गन कर रोने लगे। उसी समय जङ्गलके भीतरसे मृदु, पर मेघकी तरह गम्भीर शब्द सुनाई दिया,-

"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!

गोपाल! गोविन्द! मुकुन्द! शौरे!”

उस समय कल्याणीको नस नसमें विष प्रवेश कर रहा था, उसकी चेतना कुछ कुछ लुप्त हो रही थी। उसने बेहोशोकी ही