पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
चौदहवां परिच्छेद।५३


था। जो वहां जाता वह जीता लौटकर नहीं आता था, क्योंकि कोई न्याय करनेवाला नहीं था। उस समय न तो अंग्रेजोंकी जेल थी, न अंग्रेजोंका इन्साफ। आजकल तो आईन कानूनका जमाना है उन दिनों पूरा अन्धेर था। कानूनके जमानेसे गैर कानूनी जमानेका मुकाबिला पाठक ही कर लें, हम क्या कहें!




चौदहवां परिच्छेद।

रात आ पहुंची। कारागारमें पड़े हुए सत्यानन्दने महेन्द्रको कहा,-"आज बड़े ही आनन्दका दिन है क्योंकि हम कैदमें हैं, बोलो, 'हरे मुरारे!' महेन्द्रने कातर स्वरसे कहा-'हरे मुरारे!'

सत्यानन्द,-"वत्स! तुम उदास क्यों हो रहे हो? इस महाव्रतको ग्रहण करनेपर तो तुम्हें एक न एक दिन स्त्री कन्याको अवश्य छोड़ना ही पड़ता। उनसे सम्बन्ध तोड़ना ही पड़ता।"

महेन्द्र-"त्याग कुछ और ही चीज है और यम-दण्ड कुछ और ही। जिस शक्तिके बलपर मैं यह व्रत ग्रहण करनेको था, वह तो मेरी स्त्री कन्याके ही साथ चली गयी!"

सत्या०-"शक्ति हो जायगी। मैं ही तुम्हें शक्ति दूंगा। महामन्त्रसे दीक्षित हो, महाव्रत ग्रहण कर लो!"

महेन्द्र (विरक्त होकर)-"मेरी स्त्री कन्याको स्यार कुत्ते नोचकर खाते होंगे। मुझसे किसी व्रतकी बात न कहिये।"

सत्या०-"इसके लिये निश्चिन्त रहो। सन्तानोंने तुम्हारी स्री संस्कार कर दिया है और तुम्हारी कन्याको भी अच्छे स्थानमें रख आये है!”

महेन्द्रको बड़ा अचम्भा हुआ। उन्हें इस बातपर विश्वास न हुआ। वे बोले "यह बात आपको कैसे मालूम हुई? आप तो बराबर मेरे साथ ही रहे।"