पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५४
आनन्द मठ


सत्या०-"हमलोगोंने महामन्त्र की दीक्षा ली है। हमपर देवताओंकी दया रहती है। आज ही रातको तुम्हें इस बातकी खबर मिलेगी और आज ही तुम इस कैदखानेसे छूट भी जाओगे।"

महेन्द्र कुछ न बोले। सत्यानन्द समझ गये कि, महेन्द्रको मेरी बातका विश्वास नहीं होता। सत्यानन्दने कहा,-"क्या तुम्हें मेरी बातका विश्वास नहीं होता? परीक्षा कर देखो।” यह कह सत्यानन्द कैदखानेके द्वारतक चले आये। उन्होंने अंधेरे में क्या किया, सो तो महेंद्रने नहीं देखा, पर यह समझ गये कि किसीसे बातचीत की है। उनके लौट आनेपर महेन्द्रने पूछा, "क्या परीक्षा करूं?"

सत्या०-"तुम अभी इस कारागारसे छुटकारा पाओगे।"

यह बात पूरी होते न होते कैदखानेका दरवाजा खुल गया और एक आदमीने अन्दर आकर पूछा,-"महेन्द्रसिंह किसका नाम है?"

महेन्द्रने कहा,-"मेरा नाम है।"

आगन्तुकने कहा,-"तुम्हारी रिहाईका हुक्म हुआ है, तुम बाहर जा सकते हो।"

पहले महेन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ, फिर सोचा कि झूठी बात है, पर परीक्षाके लिये बाहर चले ही आये। किसीने रोक टोक नहीं की। वे राजपथतक चले आये।

इधर आगन्तुकने सत्यानन्दसे पूछा, “महाराज! आप भी क्यों नहीं निकल चलते? मैं तो आपके ही लिये आया हूं।"

सत्या०-"तुम कौन हो? क्या धीरानन्द गोस्वामी?"

धीरा०-“जी हां।"

सत्या०-"तुम पहरेदार कैसे बने?"

धीरा०-"मुझे भवानन्दने यहाँ भेजा है। नगरमें आकर मैंने सुना, कि आपलोग कैद हो गये हैं। यह सुनते ही मैं थोड़ी धतूरा