पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८९
चौथा परिच्छेद


पुत्र, कन्या और सगे-सम्बन्धियोंसे नाता तोड़ देना पड़ता है। स्त्री, पुत्र, कन्या आदिका मुंह देखना भी पाप है। उसके लिये प्रायश्चित्त करना पड़ता है। जबतक संतानोंका मनोरथ सिद्ध नहीं होता, तबतक तुम अपनी कन्याका मुंह न देखने पाओगे। इसलिये यदि तुमने संतानधर्म ग्रहण करनेका पक्का इरादा कर लिया हो, तो फिर कन्याका हाल न पूछो पूछकर ही क्या करोगे? क्योंकि तुम उसे देखने तो पाओगे ही नहीं।"

महेंद्र-"ऐसा कठिन नियम क्यों प्रभो?"

सत्या०-"संतानोंका का बड़ा ही कठिन है। जो सर्वत्यागी हैं, उसके सिवा दूसरेसे यह काम नहीं हो सकता। जिसका चित्त माथाके जालमें फसा है, वह डोरीमें बंधे हुए पतङ्गकी तरह पृथ्वी छोड़कर स्वर्ग नहीं जा सकता।"

महेंद्र-महाराज! आपकी बात अच्छी तरह मेरी समझमें नहीं आती। जो स्त्री-पुत्रका मुंह देखता है, वह क्या किसी गुरुतर कार्यका अधिकारी नहीं हो सकता?"

सत्या०-"पुत्र कलत्रको देखते ही हमलोग देवताकी बात भूल जाते हैं। संतानधर्मका यह नियम है कि जब भी प्रयोजन हो, तभी संतानगण प्राण त्याग दें। तुम यदि अपनी कन्याका मुंह देख लोगे, तो क्या उसे छोड़कर तुमसे प्राण दिये जायंगे?"

महेंद्र-"न देखनेपर ही क्या उसे भूल जाऊंगा?"

सत्यानंद-"अगर न भूल सकोगे तो यह व्रत मत ग्रहण करो।"

महेंद्र-"क्या सभी संतानोंने इसी तरह स्त्री पुत्रकी मोह-माया त्यागकर यह व्रत ग्रहण किया है? तब तो संतानोंको संख्या बहुत ही कम होगी?"

सत्या०-"संतान दो तरहके हैं एक दीक्षित दूसरे अदीक्षित। जो दीक्षित नहीं हैं, वे संन्यासी या भिखारी हैं। वे केवल युद्धके