पृष्ठ:आलम-केलि.djvu/११

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सवैया

जा थल कीन्हें बिहार अनेकन ता थल काँकरी बैठि चुन्यो करैं।
जा रसना सों करी बहु बात सुता रसना सो चरित्र गुन्यो करैं।
'आलम' जौन से कुंजन में करी केलि तहाँ अब सीस धुन्यो करैं।
नैनन में जो सदा रहते तिनकी अब कौन कहानी सुन्यो करैं।

हमारे मित्र पुत्तूलाल जी सारंगी भी बजाते थे। बरसात के दिनों में कभी कभी यह कवित्त सारंगी पर गाया करते थे:—

"कैधों मोर सोर तजि गये री अंनत भाजि,
कैधौं उत दादुर न बोलत हैं ए दई।
कैधों पिक चातक महीप काहू मारि डारे,
कैधों बकपाँति उत अन्तर्गत ह्वै गई।
'आलम' कहै हो आली अजहूँ न आये प्यारे,
कैधौं उत रीति बिपरीत बिधि ने ठई।
मदन महीप की दोहाई फिरिबे तें रही,
जूझि गये मेघ कैधों दामिनी सती भई।

'सेख' का यह निम्नलिखित कवित्त बहुत ही मस्त हो कर गाया करते थे:—

रात के उनींदे अलसाते मदमाते राते,
अति कजरारे दृग तेरे यों सोहात हैं।
तीखी तीखी कोरनि करोरे लेत काढ़े जीउ,
केते भये घायल औ केते तलफात हैं।
ज्यों ज्यों लै सलिल चख 'सेख' धौवै बारबार,
त्यों त्यों बल बुंदन के बार झुकि जात हैं।
कैबर के भाले कैधों नाहर नहनवाले,
लोहू के पियासे कहूँ पानी तें अघात हैं।