पृष्ठ:आलम-केलि.djvu/५१

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- आलम-अलि अलबेली योलनि हँसनि, पुनि. अलबेली, : अलवेली, डोलनि में जोति सी जगमनै । . नैननि मैं भौहनि में, अधर : कपोलनि -मैं, : . ऐसो जाको जोयन-जराउ, सो जगमगै ॥३३॥ हार हू को भार उर फेहूँ ना सँभार- नारि. अलप अहार रस बास को अहार है । सीरें सियराइ ताते तातीसी है जाइ डोले, पौन के परस प्यारी पान की सी डार है । कहि कवि 'बालम' न रंभा हू न रति ह.मैं, ... मैनका', धृतांची ऐसी रूप को अपार है। यानक विचित्र अब चित्रित न होइ ऐसी, :: चित्र लिखि प्तरी जिलाई करतार है ॥३॥ बिरही विलंपि. खाँगेर बिरह. वियोग माँगे, प्रेमहि प्रतीति है सुनेमहि : नियाहि हो ।' 'पालमा सनेही चे तु देही के दहे हैं ते तो, जोगी जैसे मिले हूँ वियोगी जाम ताहि हो । । कौघनि मीझाँकि चकचौधनि, लगाई जिन, . काल्हि ते फन्हाई तुम रोझि रहे जाहि हो।। पून्यो ऐसी आनि घर पैठिहै. घरी में यलि, ', देहरी दुवार लगि दीपकुं न चाहि हो । १-मैनका, घृताची - इन्द्रपुरी की अपरारा विशेष ।। २-बांग = कम होता जाता है, पूरा होता है। . . .. .