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आल्हखण्ड। १४२

सुमिरन॥

गोपी घूमैं नहिं गलियनमें नहिकहुँ नचत फिरतहैं श्याम॥
मानुष देही यह रहिहैना इकलो रही जगत में नाम १
नहीं भरोसा नर देहीको कैसे करै झूठ अभिमान॥
सदा इकेलो तर बिरवाके मनमें करै रामको ध्यान २
यह सहाई है दुनिया में गाई बेद पुराणन गाथ॥
ताते ज्वानो खुब यह समझो गुजरो फेरि न आवै हाथ ३
समय जो पावो कछु दुनियामें ध्यावो सदा राम रघुराज॥
बिगरी सुधरै तुरतै तुम्हरी पूरण होयँ तुम्हारे काज ४
छुटि सुमिरनी गै देवनकै शाका सुनो शूरमन क्यार॥
सुन्दरवन को चिट्ठी जाई लड़ि हैं बड़े बड़े सरदार ५

अथ कथाप्रसंग॥


उदय दिवाकर मे पूरब में किरणनकीन जगतउजियार॥
जोगा भोगा त्यहि समया में आये तुरत राज दरवार १
हाथ जोरिकै जोगा बोले बप्पा बचन करो परमान॥
पाँचलाख फौजै हम लैगे रहिगे तीनिलाख सब ज्वान २
सुनिकै बातैं ये जोगा की राजै कागज लीन उठाय॥
चिट्ठी लिखिकै अरिनन्दन को सुन्दरवन को दीन पठाय ३
पाती लैकै हरिकारा गो सुन्दर वनै पहूंचा जाय॥
पढ़िकै पाती अरिनन्दन ने गौरीनन्दन चरण मनाय ४
तुरत बुलायो सेनापति को तासों कह्यो हाल समुझाय॥
जितनी सेना सुन्दरवन की सवियाँ कूच देव करवाय ५
सुनिकै बातैं महराजा की कूचक डङ्का दीन बजाय॥
कूच कराये सुन्दरवन ते नद्दी निकट पहूँचे आय ६