पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/१४७

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आल्हखण्ड । १४२ २६ सुमिरन ॥ गोपी घूमें नहिं गलियनमें नहिकहुँ नचत फिरतहें श्याम।। मानुष देही यह रहिहेना इकलो रही जगत में नाम । नहीं भरोसा नर देहीको कैसे करै झूठ अभिमान॥ सदा इकेलो तर विरवाके मनमें करै रामको ध्यान २ यह सहाई है दुनिया में गाई बेद पुराणन गाथ ।। ताते ज्यानो खुब यह समझो गुजरो फेरि न आवै हाथ ३ समय जो पावो कछु दुनियामें ध्यावो सदा राम रघुराज ॥ विगरी सुधरै तुरतै तुम्हरी पूरण हो तुम्हारे काज ४ छुटि सुमिरनी गै देवनकै शाका सुनो शूरमन क्यार । सुन्दरवन को चिट्ठी जाई लड़ि हैं बड़े बड़े सरदार ५ अथ कथामसंग ॥ उदय दिवाकर मे पूरब में किरणनकीन जगतउजियार ।। जोगा भोगा त्यहि समया में आये तुरत राज दवार । हाथ जोरिक जोगा वोले बप्पा बचन करो परमान ।। पाँचलाख फौजे हम लैगे रहिगे तीनिलाख सब ज्वान २ मुनिक बात ये जोगा की राजे कागज लीन उठाय॥ चिट्ठी लिखिकै अरिनन्दन को सुन्दरवन को दीन पठाय ३ पाती लैक हरिकारा गो सुन्दर वनै पहूंचा जाय ॥ पदिक पाती अरिनन्दन ने गौरीनन्दन चरण मनाय : तुरत बुलायो सेनापति को तासों को हाल समुझाय ।। जितनी सेना सुन्दरवन की सत्रियाँ कूच देव करवाय । मुनिकें बातें मराजा की कूचक उसका दीन वजाय । कत्र कगये मुन्दरवन ते नही निकट पहूँचे आय ६ 1