पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/१६१

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१० भाल्हखण्ड । १५६ राधी गति अद्भुत दर्शानी २ ॥ निशि दिन पापकर्मरत प्राणी सत्यासत्य भुलानी 13 हत्यालाख धरत शिर ऊपर मोह बेदना ठानी॥१॥ नाती पूत शोच बश परकर आतमज्ञान हिरानी॥ अहं अहं डहकत दरवाजे देखत नारि बिरानी ॥२॥ अभिमानी नित देखत आंखिन मरतजात बहुप्रानी॥ तबहूं तनक चेत मननाहीं रटै रामगुणखानी ॥ ३ ॥ हटै अकाल सुकाल बढ़े जग नाशय रोग निशानी ॥ सो नहिं होनहार हम देखत होय बहुतनरज्ञानी ॥४॥ अभिमानी लाखन हम देखत ज्ञानी दशहुन जानी ॥ होत प्रपंच साधु सन्तनमें पंचन नाहि ठिकानी ॥ ५॥ तजि दुर्गा अर्चन नर पामर गति मुर्गाकी आनी ।। लेहॅडिपुत्र पौत्र उपजावत अनशिक्षित अभिमानी॥६॥ तेइ माद धर्मकी नाशत भाषत झूठ गुमानी ॥ मात पिताको मूरख कहिकै देवत कष्ट महानी ॥७॥ यह कलियुगकी देखि बड़ाई कहत ललित यहभानी॥ राघौ राम और रघुनन्दन इन बन्दन दुखहानी॥८॥ चलो मन जहाँ बसे रघुराज । चलो मन जहाँ बसें रघुराज ॥ यहि दुनिया में कौन हमारो हम क्यहिके क्यहिकाज ॥ देखत जो कछु रहत न सो कछु ढहत काल शिरताज ॥१॥ गहत कौनके रहत कौन नर सोइ कहत हम आज ॥ रघुनन्दन जगवन्दन ज्यहि सुत त्यहि शिरपर दुखभ्राज ॥२ सेयो यशोदा नन्द कृष्णको सोऊ न आये काज ॥ वैरिनि विपति सबहिं शिरऊपर देखिलेहु महराज ॥ ३ ॥ जो मन फॅसे जगत के अन्दर बन्दरसम बिनलाज । द्वारद्वार नट तिन्है नचावत ललित पेट के काज ॥ ४ ॥