पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/१६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आल्हखण्ड । १५८ भोजन खावै हरिको ध्यावै साँचो ग्राहक दीन बताय ३ नाहक जग में कोउ पछतावै भाव नहीं दूसरो काज ॥ देही आपनि गलि गलिजावै आये फेरि जगत में लाज ४ टि सुमिरनी गै ह्याते अब शाका सुनो शूरमन क्यार॥ व्याह बखानों मलखाने का लड़िहैं बड़े बड़े सरदार ५ श्रथ कथाप्रसंग ।। यहु गजराजा पथरीगढ़ को ज्यहिको भरी लाग दरबार ।। वैठक बैठे सव क्षत्री हैं एकते एक शूर सरदार सुवा पहाड़ी कहुँ पिंजरन में महलन नाचिरहे कहुँ मोर ॥ वैठि कबूतर कहुँ घुटकत हैं तीतर बोलिरहे कहुँ जोर २ घोड़ अगिनिया त्यहि राजाके साजा सबै विधाता काज ॥ है गजमोतिनि त्यहिकी बेटी विद्या रूप शील शिरताज ३ सो नित खेलै सँग सखियन में मेलै सदा गले में हाथ ।। सेमा भगतिनि की चेली है गुट्वा ख्यले सखिन के साथ । खेलत खेलत कछु सखियों ने कीन्ही तहाँ व्याह की वात ॥ कोउकोउ सखियाँ तहँ व्याहीथीं जानैं भलो श्वशुरपुर नात " व्याही बोलें अनव्याहिन सों सखियो सुनो हमारी बात ।। सुरपुर हरपुर हरिपुर नाहीं जो सुख मिले श्वशुरपुररात ६ मुनि सुनि बातें ये व्याहिनकी तहँ अनव्यहीम अकुलायें ।। फिरिफिरि पूछे तिन सखियनमा कासुखश्वशुरपुरैअधिकाय . वनियाँ घतियाँ जे बालम की छतियाँ छुवें और अठिलायें । रनियाँ केरी सब वनियाँ को सखियाँ कहैं और हरपायें मुगपुर हरपुर हरिपुर नाही जो सुखश्वशुरपुरैअधिकाय॥ मुनि मुनि बाने ये व्याहिनकी मनमाँ गई वात ये छाय