पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/२१५

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आल्हखण्ड । २१० खेत छूटिगा दिननायक सों झंडा गड़ा निशाको आय ।। तारागण सव चमकन लागे संतन धुनी दीन परचाय १४३ माथनवावों पितु अपने को ह्याँते करों तरंग को अन्त ॥ रामरमा मिलि दर्शन देवो इच्छा गही मोरि भगवन्त१४३ इति श्रीलखनऊनिवासि (सी, आई, ई ) मुंशीनवलकिशोरात्मन बादप्रयागना- रायण जीकी आज्ञानुसार उन्नाममदेशान्तर्गतपॅटरीकलानिवासिमिश्रवंशोङ्कन बुधकृपाशंकरसूनुपं ललिताप्रसादकृतब्रह्माटीकावर्णनोनामप्रथमस्तरंगः ।।१।। सवैया ॥ भो रधुनाथ अनाथन नाथ सनाथ करो अब तो भगवाना। और न पाश निराशकरो नहिं देखिचुके सब और ठिकाना । मात पिता अरु भ्रातको नात सबै तुमहीं यहही मनजाना। गात सुखात सबै दिन जात नहीं ललितें कछु झूठबखाना ? सुमिरन ॥ दोउ पद ध्यावों रघुनन्दन के बन्दनकरों जोरि दउहाथ ।। नहीं सहायक कउ काको है स्वामी दीनबन्धु रधुनाथ । विना तुम्हारे को परमारथ अन्त में देइ कौन को साथ ॥ भो जगतारण भवभय हारण तुमही सदा हमारे नाथ २ को अस दुनियामाँ पैदा भा जो तरिंगयो विना तव नाम।। माता माता अरु ताता ना अन्तम अवैं आपने काम ३ तुम्ही गोसइयाँ दीनवन्धु ही सीतापती चराचर नाथ ॥ जावै समय हाथ वेहाथ गाय के पार तुम्हारी गाय न्यहि को गावों कसमानुप में स्वामी दीनबन्धु रघुनाथ । नालति हमरी दिज देही का शिव औ ब्रह्मा कोउ पायो ना