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पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/३१४

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चन्द्रावलि की चौथि। ३११

को गति बरणै रणशूरन कै सम्मुख करैं समर मैदान १५४
मान न रहिगे क्यहु क्षत्रिनके सब के छूटि गये अरमान॥
बहुतक करहैं समरभूमि में अधजलपरेअनेकनज्वान १५५
बहुतक सुमिरैं घर अपने को औ मन परे परे पछितायँ॥
बहुतक क्षत्री गिरैं समर में काटे बृक्ष सरिस भहराय १५६
नदी भयङ्कर बही रकत की त्यहिमाँ गिरे ऊंट गज धाय॥
छुरी कटारी मछली ऐसी ढालैं कछुवा परैं दिखाय १५७
परीं लहासैं तहँ मनइन की छोटी डोंगिया सम उतरायँ॥
बह सिवारा जस नदिया माँ तैसे बहे बाल तहँ जायँ १५८
भूत पिशाच योगिनी नाचैं गावैं गीत बीर बैताल॥
श्वान शृगालन की बनिआई गीधन गरे परे जयमाल १५९
चिघरैं हाथी रणमण्डल में डगरैं बड़े बड़े सरदार॥
झगरैं मलखे रणशूरन ते डगरैं डारि डारि हथियार १६०
रहि अभिलाषा नहिं केहू के जो फिरि करै वहाँपर मार॥
जितने लड़िका वीरशाह के बाँधे सिरसा के सरदार १६१
रहैं सिपाही जे बौरी के भागे डारि ढाल तलवार॥
भागे क्षत्रिन का मारैं ना नाहर मोहबे के सरदार १६२
रीति पुरानी इन छोड़ी ना कतहूँ समर भूमि में ज्वान॥
पूरो क्षत्रीपन करतीं ना मरतीं नहीं समर मैदान १६३
तो यह गावत को गाथा फिरि तजिकै सकल आपनो काम॥
यह सब जानत है अपने मन रहिहै एक रामको नाम १६४
तबहूँ मानत है जीवन बहु तजिकै कर्म धर्म्म इतमाम॥
यह नहिं जानत है अपने मन साँचो धर्मकर्म सुखधाम १६५
गये सिपाही नूप द्वारे पर औ सब हाल बताये जाय॥