पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/३२३

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आल्हखण्ड। ३२. भारी मेला हे विठूर का जो तुम जेहो पूत हिराय २२ हो इकलौता म्बरी कोखि में ताते मोर प्राण घबड़ाय ।। इतना सुनिक इन्दल बोले माता साँच देय बतलाय २३ जान न पाएँ जो गंगा को तो मरिजायँ जहरको खाय ।। हुकुम देवावे की ददुवाते की अब घरै वैठि पचिताय २४ सुनिकै बातें ये इन्दल की सुनवाँ गई सनाका खाय ॥ गई तड़ाका दिग आल्हा के इन्दल हाल वतावा जाय २५ वात सुनिक सब सुनवाँ की आल्हा वोले वचन सुनाय ॥ लिखी विधाता की मेटे को अब तुम देवो पूत पठाय २६ जहर खायकै जो मरिजाई तोहू शोच होय अधिकाय ॥ पार लगैहँ श्रीगंगाजी यहमत ठीक लीन ठहराय २७ इतना सुनिकै सुनवाँ चलिभ इन्दल पास पहूँची आय ॥ । औं बुलवायो वघऊदन को सवियाँहालकह्योसमुझाय २८ इन्दल बिगरे हैं महलन में गंगा इन्हें देउ अन्हवाय ।। पै हम सौंपति त्वहिं इन्दलको देवर बार वार शिस्नाय २६ किह्यो वखेड़ा नहिं मेला में रेला होय तहाँ अधिकाय ॥ वहाँ न जायो इन्दल लेकै मान्यो कही बनाफरराय ३० इतना सुनिकै ऊदन इन्दल दोऊ चलिमे शीश नवाय ।। जायकै पहुँचे फिरि फौजन में लश्कर कूच दीन करवाय ३१ वायें घोड़ा है देवा का दहिने बेदुल का असवार॥ बीच म जावे इन्दल ठाकुर कम्मर परी एक तलवार ३२ पांच दिनौना मारग लागे छठवें दिवस पहूंचे जाय । भारी मेला भा विठूर माँ आवा तहां कनौजीराय ३३ लाखनि धावन लीन बुलाय॥ बाजे का तहँ उदन का