पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/४०

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संयोगिनिस्वयम्बर। करन निराशा नहिं चाहत है मानो सत्य बचन कबिराज ॥ ॥ तुमहूं जावो निज मन्दिर को हमहूं जात आपनी राज ११६ यह सुनि गमने चन्द कवीश्वर जयचंद कूच दीन करवाय ।। ॥ राति दिनौनन के धावा करि पहुँचेकनउजमेंफिरिआय १२० पृथुइराज निज महलन पहुँचे पद्मिनि मिली तहांपर आय ॥ करि गन्धर्व ब्याह ताके सँग ौसुखकरनलागिअधिकाय१२१ पूर स्वयम्बर संयोगिनि का गायों सत्य सत्य सब हाल ।। माथ नवावों शिवशङ्करका अम्बुजसरिसनयनत्रयलाल १२२ किहे कोपिनी हैं सर्पन की धारे जटाजूट हैं शीश ॥ सकल जगत के सो स्वामी हैं किरपाकर ललितपर ईश १२३ माथ नवावों पितु अपने को जिन म्वहिं विद्या दीन पढ़ाय।। आशिर्वाद देंव मुंशीसुत जीवहु प्रागनरायणभाय १२४ रहे समुन्दर में जबलौँ जल जबली रह चन्द औ सूर ।। मालिक ललिते के तबलौं तुम यशसों रहो सदा भरपूर १२५ इति श्रीलखनऊनिवासि (सी, श्राई, ई ) मुशीनवलकिशोरात्मज बाबू प्रयागनारायणजीकीआज्ञानुसार उन्नामपदेशान्त- त पँडरीकलांनिवासि मिश्रबंशोद्भवबुध कपाशङ्कर सूनु परिदतललिताप्रसादकृत पृथुइराजजयचन्द युद्धवर्णनो नाम तृतीयस्तरङ्गः ॥३॥ संयोगिनिस्वयम्बरसम्पूर्ण ॥ इति ॥