पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/४४१

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आल्हखण्ड। ४१० रजित अभई की बातें सुनि मल्हना गई तुरत बौराय ।। बोलि न आवा महरानी ते मुँहकापानगयोकुम्हिलाय१६५ धीरज धरिके अपने मनमा औ फिरि सुमिरि शारदामाय ।। देव मनावै मनियादेवन मल्हना वारवार शिरनाय १६६ तुम्हीं गोसइयाँ दीनबन्धु हो देवता मोहवे के भगवान ।। रजित अभई दोउ वेटन की कीन्ह्योआपअवशिकल्यान१६७ हम जो बरजै अब रंजित का करि है पूत नहीं कछु कान ।। शपथ खायके महराजा के हमरीशपथकीनफिरिआन१६८ अब समुझाये ते मानी ना मनमा ठीक लीन ठहराय ।। कीन तयारी फिरि सागर के गौरा पारवती को ध्याय १६६ माहिल बोलें ह्याँ अभई ते बेटा काह गयो बौराय ॥ तुम नहिं जावो सँग रंजित के मोहवामलेउजरिसवजाय १७० रंजित ब्रह्मा दोर मरिजावें तुम्हरी जूझे पूत क्लाये। इतना सुनिक अभई बोले दाऊ सांच देय बतलाय १७१ कहा नपलटवहमकौनिउविधि चहु तन रहै चहौ नशिजाय ।। पांय लागि फिरि माहिल के डका तुरत दीन बजवाय १७२ बाजे डङ्का अहतङ्का के शङ्का छोड़ि दीन सरदार ।। शूर अशङ्का भट बङ्का जे ते सब गही हाथ तलवार १७३ सजा रिसाला घोड़नवाला आला एक लाख अनुमान ।। सजि इकदन्ता दुइदन्ता गे हाथी छोटे मेरु समान १७४ अंगद पंगद मकुना भौरा सजिगे श्वेतवरण गजराज ॥ धरी अवारी तिन हाथिन पर बहुत न हौदा रहे विराज १७५ घण्टा वांधे गल हाधिन के भारी देत चलें उनकार ।। सजे सिपाही पैदलं वाले लीन्हे हाथ दाल तलवार १७६