करों वन्दना पितु माता को दोऊ हाथ जोरि शिरनाय॥
मातु भवानी पितु परमेश्वर बन्दनकिहे स्वर्गकाजाय १८९
निश्चयजिनका पितु मातापर देवी देव सरिस अधिकाय॥
तिनका जगमा कछुदुर्लभ ना साँचीकहतललितयहगाय १९०
करों वन्दना अव शंकर की ह्याँते करों तरँगको अन्त॥
राम रमा मिलि दर्शन देवैं इच्छा यही भवानीकन्त १९१
इति श्रीलखनऊनिवासि (सी,आई,ई) मुंशीनवलकिशोरात्मजवाबूप्रयागनारायण
जीकीआज्ञानुसार उन्नामप्रदेशान्तर्गत पॅड़रीकलां निवासि मिश्र
वंशोद्भव वुधकृपाशङ्करसूनु पण्डितललिताप्रसादकृत रंजित
युद्धागमनबर्णनोनामप्रथमस्तरंगः॥१॥



सवैया॥
दीनदयाल गुपाल कृपाल सुरासुरपाल सुनो महराजा।
सोबत जागत वैठ जो होहु सुनो विनती तुमहूँ रघुनन्दन बुलाय॥
गाजिरह्यो खल कामबली औ छलीदल मोहके वाजतवाजा।
राम औ कृष्णभजै ललिते तवहूँ यह जीततहै कलिराजा १
सुमिरन॥
रक्षा जगकी जो करते ना तौ कस होत नाम जगदीश॥
ईश्वर होते रघुनन्दन ना कैसे हनत समर दशशीश १
बड़े प्रतापी अंजनि वाले अवहूँ अमर जगत हनुमान॥
ऐसे अनुचर ज्यहि स्वामी के पूरण ब्रह्म ताहि अनुमान २
रीछ औ बाँदर को सँगमालै जीता बली शत्रुको जाय॥
शत्रु प्रतापी के भाई को को नरलेय जगत अपनाय ३
को फल खावत घर शवरी के कोधों तजत आपनी राज॥
कोधों तारत तिय गौतम की प्यारी माननीय शिरताज ४