पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/४४५

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आल्हखण्ड । ४४४ रही न आशा क्यहु लडिवेकी आरी भये समरमें ज्वान १० सवैया । मारत औ ललकारत संगर लंगर मे क्यहु बुद्धि चलेना। शूर शिरोमणि रंजित ज्वान सो मान किये रण पैर टरेना।। होत जहाँ घमसान महाँ तह वीर कोऊ अभिमान करना। माहिल पूत सुपूत जहाँ सो तहाँ ललिते कोउ देखि परैना११ बड़ा लड़ेया माहिल वाला आला उरई का सरदार ॥ हनि हनि मारे रजपूतन का भारी हाँक देय ललकार १२ चौंड़ा वकशी पृथीराज का सोऊ खूब करें तलवार ॥ चौड़ा सोहत है हाथी पर अभई घोड़े पर असवार १३ सेल चौंडिया इनिकै मास अभई लीन्यो वार वचाय ।। ऍड़ लगावा फिरि घोड़े के हाथी उपर पहूँचा जाय १४ दालकि औझड़ अभई मारा चौड़ा गयो मूर्छा खाय ॥ भागि सिपाही दिल्लीवाले रंजित दीन्यो फौज बढ़ाय १५ कीरतिसागर मदनताल पर पहुँचा फेरि चंदेला आय।। गा हरिकारा ह्याँ फौजन ते राजै खबरि सुनाई जाय १६ हाल पायकै पृथीराज ने सूरज पूत दीन पठवाय ॥ सूरज आयो जब सागरपै वोल्यो दोऊ भुजा उठाय १७ डोला दे चन्द्रावलि का रंजित कूच देउ करवाय॥ नहीं तोवचिही ना संगरमा जोविधि आपु बचाआय१८ इतना सुनिकै रंजित बोले सूरज काह गये बौराय ।। मई सराही त्यहि ठाकुर का डोला पासजाय नगन्याय १६ जितनी विल्ली दिल्लीवाली तिनको देवों समर सुवाय ।।