पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/४४८

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कीरतिसागरकामैदान । ४४७ २३ 'नहीं सुहागिल कोउ वचिहै ना मोहवा रंडन सों भरिजाय ४२ इतना सुनिकै अभई वोले रण माँ दोऊ भुजा उठाय॥ हम नहिं देखें गति काहूकै डोला पासजाय नगच्याय ४३ पर्व आपनी पूरी करिकै अवहीं कूच देव करवाय ॥ रारि मचाये कछु पैहो ना साँची बात दीन बतलाय ४४ 'अवै मोहोवा अस सूना ना जैसा समझि लीन सरदार ।। मूड़ न रैहैं जब देही मा तवहूं रुण्ड करें तलवार ४५ इतना सुनिकै ताहर ठाकुर लाशै फौज दीन पठवाय ।। हुकुम लगावा रजपूतन का इनके देवो मूड़ गिराय ४६ हुकुम पाय कै यह ताहर का लागे लड़न शूर सरदार ।। पैदल पैदल के बरणी भै औ असवार साथ असवार ४७ भाला बलेकी छूटन लागे पागे मोद शूर त्यहि बार ॥ 'अपन परावा कछु सूझै ना • आमाझोर चले तलवार ४८ कटि कटि कल्ला गिरे खेत माँ उठि उठि रुण्ड मचावे मार ॥ को गति बरणै त्यहि समया के नदिया वही रक्तकी धार ४९ मुण्डन केरे मुड़चौरा मे औ रुण्डन के लगे पहार ।। यह रणनाहर मल्हनावाला आला मोहवे का सरदार ५० जैसे भेड़िन भेड़हा पैठे जैसे सिंह बिडारे गाय।। -तैसे मारै रजपूतन का छप्पन दीन्हे मूड़ गिराय ५१ बड़ा प्रतापी रण नाहर यहु यहि के बाँट परी तलवार ।। यहिके मारे हाथी गिरिगे मरिगे सूरजसे सरदार ५२ रंजित नामी यहु ठाकुर जो रणमाँ भली मचाई रार ॥ पटा बनेठी बाना फेंकै टेकै दऊ हाथ तलवार ५३ लोह कि टोपी शिर में धारे सब्जा घोड़ेपर असवार ।।