पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/५१५

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आल्हखण्ड । ५१४ इतना सुनिके परिमालिकजी लागे करन मंगलाचार २३५ सवैया॥ मोद अपार बढ्यो त्यहि बार सो यार सँभार रह्यो कछु नाहीं। पैरको भूषण हाथन धारि सो हाथको भूपण पैरन माहीं।। हाथ मिलावत धावत आवत गावत गीत डरे गलबाहीं। कौन सों मारग ऐसो तहाँ सो जहाँ ललिते सुखपावत नाही २३६ बड़ा मोदभा पुर महलन मा टहलन नेक न लागी वार॥ आल्हा ऊदन लाखनि ठाकुर सबहिनखूबकीनज्यवनार २३७ खेत छूटिगा दिननायक सों झण्डा गड़ा निशाको आय॥ तारागण सब चमकन लागे संतन धुनी दीनपरचाय २३८ घरे आलसी खटिया तकितकि घों घों कएउ रहे धर्राय ॥ आशिर्वाद देउँ मुन्शी सुत जीवो प्रागनरायण भाय २३६ रहै समुन्दर में जबलों जल जबलों रहैं चन्द ओ सूर॥ मालिक ललिते के तबलों तुम यशसों रहौ सदा भरपूर २४० माथ नवाबों पितु माता को देवी देव सरिस औतार॥ सेवा करिके पितु माताकी सखन पून भयो भवपार २४१ औरों गाथा रघुनाथा की कहिंगे वालमीकि विस्तार॥ पूरण ब्रह्म आदि पुरुषोत्तम स्वामी रामचन्द्र अवतार २४२ अब वदनामी का डर नाही होवो शरण तुम्हारी हम ताके हैं दर्शन हें नाथ यहिवार २४३ पगड़ी हमरी अब अरुझी है सो सुरझाय-देव रघुनाथ ।। कितनो पापी कलियुग करि है तवहूँ धरों चरण में माथ २४४ माता भ्राता नाता ताता; नाता एक ठीक रघुनाथ ।। रामचन्द्र भरि ।।