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पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/५४५

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आल्हखण्ड । ५४४

जटा के ऊपर सुरसरि सोहै तापर बैठ भुजग बिकराल ।।
श्वेत वरण तन भस्म रमाये धारे हृदय मुण्ड के माल ४
को गति बरणे शिवशङ्कर कै बटतर नित्त करें विशराम ॥
भाँग धतूरन को भोजन करि ध्यावैम नित्त राम को नाम ५
छूटि सुमिरनी गै देवन कै शाका सुनो शूरमन क्यार॥
चढ़ी कनौजी अब दिल्लीपर चढ़ि है उदयसिंह सरदार ६

अथ कथाप्रसंग ॥


बेला बैठी निज महलन माँ मनमा धरे राम को ध्यान ।।
कन्त जूझिगे रणखेतन मा फिरि यह करन लागि अनुमान १
नैनन आँसू ढारन लागी पागी महादुःख भ्रमजाल ।।
मुर्च्छा जागी जब बेला की चिट्ठी लिखन लागि त्यहि काल २
लिखी हकीकति यह ऊदन का बेटा देशराज के लाल ।।
तुम्हैं मुनासिब यह नाहीं थी जैसी कीन आप यहि काल ३
वादा कीन्ह्यो ब्याहे मा गौने विदा लेव करवाय ।।
कन्त जूझिगे रण खेतन माँ अन्तौ मिलन कठिन दिखराय ४
भये जनाना तुम द्यावलि के ऊदन बार बार धिक्कार ।।
नालति तुम्हरी रजपूती का नाहक लेउ ढाल तलवार ५
होतिउ बिटिया तुम द्यावलिके करतिउ बैठि महल शृङ्गार ।।
शोच न होते तब बेला के ठाकुर उदयसिंह सरदार ६
होत जो बेटा बच्छराज का ठाकुर शूर वीर मलखान ।।
तो का करतीं दिल्ली वाले बिल्ली रूप सबै चौहान ७
गिल्ली ह्वैकै आल्हा ठाकुर दिल्ली देखि डरे यहि काल ।।
ऐसी पिल्ली हैं मोहबे मा तौ का करें रजा परिमाल
टिल् टिल् टिल्ली खलभल्ली ई लल्ली देशराज के लाल।