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पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/५५९

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आल्हखण्ड। ५५८

घोड़ बेंदुला की पीठी मा ठाकुर उदयसिंह सरदार १६५
मुर्चाबन्दी भै दूनों मा दूनों लड़ै लागि त्यहिकाल ।।
अभिरे क्षत्री अरव्झारा सों भिड़िगै तहाँ ढाल में ढाल १६६
धाँधू धनुवाँ का मुर्चा भा सय्यद नृपति ग्वालियर क्यार ॥
को गति बरणे रजपूतन कै मारैं द्वऊ हाथ तलवार १६७
जैसे भेड़िन भेड़हा बैठै जैसे अहिर बिडारै गाय ।।
तैसे मारे ताहर नाहर शूरन दीन्ह्यो समर वराय१६८
धाँधू धमकै तहँ तेगा को चमके चमाचम्म तलवार ।
अली अली कहि सय्यद दौरै रणमा होत जात गलियार १६९
बड़ा लड़ैया अंगद राजा गारै ढूँढ़ि ढूँढ़ि सरदार ।।
मारे मारे तलवारिन के नदिया बही रक्तकी धार १७०

सवैया॥


करहत शूर गिरैं रणखेतन पूरि रही ध्वनि मारू अपारा ।
मत्त मतंग गिरैं भहराय सो हाय दयी यह होत पुकारा ।।
छूटत तीर सो पूरि रहे तन धूरि उड़ै नहिं कीच अपारा ।
मीच भई रण शूरन की ललिते मन कायर जात दरारा १७१
कायर भागि चले ललिते अकुलात महामन दुःखन छाये।
मोद बढ़यो रणशूरन के बलपूरन के कछु दुःख न आये ।।
कूर कुपूत रहे रजपूत ते मूत भये रण नाम धराये ॥
पूत सुपूत महामजबूत सो बूतलड़ैं नहिं पाउँ डिगाये १७२



बड़ी लड़ाई भै मारग में पिरथी लाखनि के मैदान ।।
मारे मारे तलवारिन के गिरिगे बड़े सुघरुवा ज्वान १७३
मान न रहिगे क्यहु क्षत्रिन के सब के छूटि गये अभिमान ।।