पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/५६७

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२ आल्हखण्ड । ५६६ चढ़े तरंगें जब भाँगन की आँगन देखि परे सुरलोक ।। दुख नहिं ब्यापै कछु देहीमा मनके छूटिजात सब शोक ४ भाँग घोटिकै नित प्रति पावै जीवै वर्ष एक शत एक ।। हर को ध्यावै तब सुखपात्र पूरी होय तत्रै यह टेक ५ छूटि सुमिरनी गै देवन के शाका गुनो शूरमन क्यार ।। बेला काटी शिर ताहर का सोई गाथ कहौं विस्तार ६ अथ कथाप्रसंग ॥ जहाँ चंदेले ब्रह्मा ठाकुर वेला गई तहाँ पर धाय ।। बैठी पलँगा कर पंखालै लागी करन पवन सुखदाय ? ग्वरि २ बहियां हरि २ जुरियाँ शोभा कही वूत ना जाय ।। शची मेनका की गिन्ती मा बेला रूप राशि अधिकाय २ यहु अलवेला ब्रह्मा ठाकुर बेलै बोला वचन सुनाय ।। टरिजा टरिजा री आँखिनते दीखे गाव सबै जरिजायँ ३ घटिहा राजा की कन्या ते कामुखहोय मोहिअधिकाय ॥ इतना सुनिके बेला बोली दोऊ हाथ जोरि शिरनाय ४ तुम्हें मुनासिब यह नहीं है जैसी कहौ चंदेलेराय ।। राज कुटुंब सब अपनो तजिकै आइन चरण शरणमें धाय ५ सुनि सुनि बातें अब प्रीतमकी छाती घाव होत अधिकाय॥ परवश कन्या की गति जैसी तैसी रही चंदेलेराय ६ ऐसी तुमको अब चहिये ना जैसी सूखी रहे सुनाय ।। सुरपुर अहिपुर नरपुर माहीं प्रीतम कौन मोर अधिकाय ७ प्यारे प्रीतम इक तुमहीं हैं। साँचो साँच दीन बतलाय ।। मुनिक बातें ये बेला की बोला फेरि चंदेलाराय मूड काटिक अब ताहरका प्यारी मोहिं देउ दिखलाय ।।