पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/६१७

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3. आल्हखण्ड । ६१६ जो नहिं अनुचितकरुदुनिया में तौनहिंहोयसजायहिराज ११८ इन रजधानी में रहिकै मैं कबहुँनकष्ट सहा क्यहुकाल । पिता पितामह औ मोसंयुत कबहुँनपश्यनविपतिकेजाल ११६ चोर छिनारन बदमासन की पिंडरी थहर थहर थर्राय ।। मोछा टेवें सज्जन बैठे नहिंकमसातलकभन्नाय१२० यह सब गावत हैं सज्जन मन नित प्रति बना रहै यह राज ।। जीवें रानी महरानी ई जिनवलसुजनमुखीसवसाज १२१ इनअसिमाता अब मिलिहैं ना यह मन नित्त लीन ठहराय ।। मिलें प्रवन्धो असकर्ता ना जसकछुआजकाल्हदिखलायँ१२२ यही कथा अब पूरण करिक ललिते करत मंगलाचार ॥ करों वन्दना मैं तुलसी की हुलसीजासु काव्यसंसार १२३ ज्यहि अवलोकन के करतखन मनके छूटि जात सब ताप ।। सोई प्यारी तुलसी गाथा ललितेकीनबहुतदिनजाप १ खेत छूटिगा दिननायक सों झण्डा गड़ा निशाको आय ।। तारागण सब चमकन लागे सन्तनधुनी दीन परचाय १२५ पूरि तरंग यहाँ सों द्वैगै तव पद सुमिरि भवानीकन्त । राम रमा मिलि दर्शन देव इच्छायही मोरिभगवन्त १२६ इनि श्रीलखनऊनिवासि(सी,आई,ई)मुशीनवलकिशोरात्मज बाबूमयागनारायण जीकी आज्ञानुसार उन्नामप्रदेशान्तर्गत पॅडरीकलांनिवासि मिश्र बंशोद्भव बुध कृपाशङ्करमनु पण्डितललिताप्रसादकृत वेलासत्ती व्याख्यावर्णनोनामप्रथमस्तरंगः १ ॥ जासतीअर्थावतर्वआल्हखण्डसमाप्तशुभमस्तु । इति ॥