पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/७९

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२६ भाल्हरखण्ड । ७४ महल तुम्हारे जो कछु पा लेक हरदार को जायें। शंका लावो कछु मनमें ना साँचे हाल दीन बतलाय १५३ सुनिकै बातें ये योगिन की रानी कुर्सी लीन मँगाय ॥ बैठे कुर्सिनमाँ योगी तब मनमें श्रीगणेशपदध्याय १५४ करों तरंग यहाँ सों पूरण तवपद मुमिरि भवानी कन्त। पारलगायो रघुनन्दन मोहिं कीन्योपाफेरि भगवन्त १५५ इति श्रीलखनऊ निवासि (सी,आई, ई )मुंशी नवलकिशोरात्मज नाजू प्रयागनारायणजीकी आज्ञानुसार उन्नाममदेशान्तर्गत पँहरीकलां निवासि मिश्रवंशोजन बुधकपाशङ्करसूनु पं० ललितामसादकत योगिरानी गृहप्रवेशो नाम दितीयस्तरंगः २॥ सवैया ॥ श्रुति शत्रुलसें नितअंगनमें मन भंगकरें पथदेखि कुचाला। रक्षक सोयगयो नंदलाल विहाल कर सबको कलिकाला॥ बस एकचलैनहिं दीनदयाल बिना तव ध्यानधरे सुरपाला। शर्ष गये ललिते निहै औ मिट सबही मनके भ्रमजाला? सुमिरन । तोहिं भवानी में ध्यावतही शारद बैठु कण्ठमें आय ।। भूले अक्षर जो कछु होवें करगहि देवो कलम लिखाय ? गदका उठिगा भीमसेन विन अर्जुन विना हिराने वान ।। पोथी उठिगै भइ सहदेव बिन अब को वाँचे वेद पुरान २ पुण्य न रहिरोकहुँ कलियुगमाँ सबके मने समान्यो पाप ।। सुखी न देखा हम काहूको सबके चढ़ी रहे नित ताप ३ विधवा नारी घर घर देखी घर घर जुदे बाप सों पूत ॥ नहीं वीरता क्यहु में देखी देखे बड़े बड़े रजपूत ४