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पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/७९

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आल्हखण्ड। ७४

महल तुम्हारे जो कछु पावैं लैकै हरद्वार को जायँ॥
शंका लावो कछु मनमें ना साँचे हाल दीन बतलाय १५३
सुनिकै बातैं ये योगिन की रानी कुर्सी लीन मँगाय॥
बैठे कुर्सिनमाँ योगी तब मनमें श्रीगणेशपदध्याय १५४
करों तरंग यहाँ सों पूरण तबपद सुमिरि भवानी कन्त॥
पारलगायो रघुनन्दन मोहिं कीन्ह्योकृपाफेरि भगवन्त १५५

इति श्रीलखनऊ निवासि (सी,आई,ई )मुंशी नवलकिशोरात्मज बाबू
प्रयागनारायणजीकी आज्ञानुसार उन्नामप्रदेशान्तर्गत पँहरीकलां
निवासि मिश्रबंशोद्भव बुधकृपाशङ्करसूनु पं॰ ललिताप्रसादकृत
योगिरानी गृहप्रवेशो नाम द्वितीयस्तरंगः २॥


सवैया॥

श्रुति शत्रुलसें नितअंगनमें मन भंगकरैं पथदेखि कुचाला।
रक्षक सोयगयो नँदलाल बिहाल करै सबको कलिकाला॥
बस एकचलैनहिं दीनदयाल बिना तब ध्यानधरे सुरपाला।
शर्ण गये ललिते निबहै औ मिटैं सबही मनके भ्रमजाला १

सुमिरन॥

तोहिं भवानी मैं ध्यावतहौं शारद बैठु कण्ठमें आय॥
भूले अक्षर जो कछु होवैं करगहि देवो कलम लिखाय १
गदका उठिगा भीमसेन बिन अर्जुन बिना हिराने बान॥
पोथी उठिगै भइ सहदेव बिन अब को वाँचै वेद पुरान २
पुण्य न रहिगै कहुँ कलियुगमाँ सबके मनै समान्यो पाप॥
सुखी न देखा हम काहूको सबके चढ़ी रहै नित ताप ३
बिधवा नारी घर घर देखी घर घर जुदे बाप सों पूत॥
नहीं वीरता क्यहु में देखी देखे बड़े बड़े रजपूत ४