तम्बू गड़िगे सब राजन के झण्डा आसमान फहरायँ ४१
भोर भ्वरहरे मुरगा बोलत जागा कनउज का नरपाल॥
दिशा फराकत सों छुट्टी करि मज्जनकरतभयोतिहिकाल४२
पहिरिकै धोती रेशमवाली आसन बैठ चँदेलाराय॥
संध्या करिकै त्यहि अवसर की औ जपमाली लीन उठाय ४३
मन्त्र गायत्री को जपिकै फिरि तर्पण करन लाग महराज॥
अक्षत चन्दन धूप दीप औ लै पकवान शम्भु के काज ४४
भोग लगायो शिवशङ्कर को ध्यायो रामचन्द्र को नाम॥
फिर वुलवायो तिन बिप्रन को जिनके जपै तपै का काम ४५
गऊ मँगायो पैंतालिस फिर व्याई एक बेर की जौन॥
बछरा नीचे हैं जिनके फिरि सोने सींग मढ़ी हैं कौन ४६
खुरौ मढ़े हैं जिन चांदी के पीठ म परीं बनातन झूल॥
पूँछ पकरिकै तिन गौवन की राजा दानदेत मनफूल ४७
भूसा दाना एकमास को बिप्रन घरै दीन पहुँचाय॥
आयकै पहुॅच्यो फिरि मंदिरमें यकइस बिप्रनलीन बुलाय ४८
दही दुध औ पेरा बरफी चटनी भांति भांति तय्यार॥
भोजन दीन्ह्यो तिन बिप्रन को राजा कनउजका सरदार ४६
सीध मॅगायो पैंतालिस फिर औरे बिप्रन लीन बुलाय॥
सहित दक्षिणा के दीन्ह्यो सो राजा बड़ा प्रेम मनलाय ५०
ऐसो दान नित्यप्रति देवै राजा बिप्रन घरै बुलाय॥
पाछे भोजन आपौ करिकै तब दरबार पहूॅचै जाय ५१
ऐसो दानी महराजा यह राजा कनउज का सरदार॥
जायकै पहूँच्यो तिहि मंदिरमाँ जहँपर भरीलाग दरबार ५२
आवत दीख्यो जब राजा को ठाढ़े भये शूर सरदार॥
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आल्हखण्ड।
