पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/१०४

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हेर फेर १०३ सफेद साड़ी खरीदने में व्यस्त थी। साथ में माता और एक नौकर था। मित्रों की पार्टी दूर ही से इस रूप-सरिता का रस-पान करने लगी । बसंतलाल के हृदय के किसी अज्ञात स्थल पर एक नवीन वेदना 'उत्पन्न हुई । वह विकल होकर और भी गंभीरता से उसे देखने लगे। कुछ ही देर यह मूक , कितु चचल अभिनये हुआ होगा कि किसी ने पीछे से बसंतलाल के कंधे को छुआ। देखा, उनके चिरपरिचित पंडित धरानन्द हैं। दोनों मित्र मिले। कुशल-प्रश्न के बाद पडितजी का ध्यान उस परिवार की ओर गया, जिस पर मित्र-मडली के नेत्र भ्रमर की भॉति मॅडरा रहे थे। उन्होंने कहा--"अरे, माताजी हैं।" वह आगे बढ़े। माताजी से मिले, और बसतलाल को बुलाकर उनसे मिलायां । परिचय दिया, तारीफ की। माताजी ने कहा--"मुझे तो पढ़ने-लिखने का समय नहीं मिलता, कितु मेरी कन्या आपके लेख बड़े चाव से पढ़ती रहती है। आपसे मिलने से बड़ा आनन्द हुआ ।" .' उन्होंने बसतलाल का कन्या से भी परिचय करा दिया। फिर दोनों मित्रों को चाय का निमत्रण देकर आगे बढ़ गई । बसंतलाल ने सब कुछ पा लिया। ': + चाय पान तो हुआ ही, साथ ही बहुत-सी गप-शप भी हुई ।बसंत- लाल ने देखा, हेमलता केवल अद्वितीय सुदरी ही नहीं, असाधा- रण बुद्धिमती और विदुषी भी है। पीछे उन्हें यह भी मालूम हो गया कि वह बी० ए० की तैयारी में है। कन्या भी वसंतलाल के रूप-गुण, , सरलता, और भावुकता से बहुत प्रभावित हुई। उसकी आँखों के लजीले भाव, मद-मंद हँसने की अदा और क्षण-क्षण पर गोरे-गोरे गालों पर खेल