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पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/१०५

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आवारागर्द

करने वाली लाली ने बसंतलाल को कुछ और ही तत्व समझा दिया। बसंतलाल की आत्मा मानो झकझोरी-सी गई। वह कुछ विकल, कुछ चंचल और कुछ अप्रतिभ-से होकर उस दिन वहाँ से उठ आए, पर उस चितेरी की चितवन की कूंची से जो चित्र चित्त पर चित्रित हो गया था, वह मिटाए नहीं मिटता था।

परन्तु मिलने और आने-जाने का रास्ता तो खुल ही गया था। वह खुला ही रहा। प्रायः प्रत्येक संध्या उनकी वहीं बीतती कभी-कभी भोजन भी वहीं होता। अनेक बार उन्हें बालिका से एकांत में बात करने का अवसर भी मिला। अतत उन्होंने अपना निवेदन कन्या से कह दिया। कन्या ने लजीले स्वर मुश्किराकर कहा—"जहाँ माता-पिता विवाह कर दे, वहीं ठीक हैं।" उसकी लाज और मुस्कुराहट की गंगा-यमुना के बीच अनुमति को सरस्वती छिपी हुई सरसा रही थी।

बसंतलाल ने मानो चाँद पाया। उन्होंने धरानदजी के द्वारा सदेश भेजा। इस संदेश पर विचार होने लगा। उनके कुल-वंश और आय-व्यय की जाँच होने लगी। अंत मे एक दिन कन्या की माता ने कह दिया—"और सब तो ठीक है, पर इनकी आमदनी यथेष्ट नहीं, यही बात विचारणीय है।"

बसंतलालजी की आय दो सौ रुपए माहवार थी। यही उनकी सपत्ति थी। इसमें संदेह नहीं कि अपनी मौजूदा आमदनी को लेकर वह रायसाहब की अमीरी में पली पुत्री हेमलता को सुख से नहीं रख सकते थे। पर यह बात उन्होंने हेमलता से कह दी थी, और हेमलता ने उन्हें आश्वासन दिया था—"हम लोग सीधे-सादे ढंग से रहेंगे, लिखे-पढ़गे, काव्य और साहित्य में मस्त रहेंगे, दुनिया को हेच समझेंगे, मैं धन-दौलत नहीं चाहती, तुम्हें प्यार करती हूँ। और, ईश्वर चाहेगा, तो हमारी आमदनी