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पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/१३

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आवारागर्द

 मैंने एक वासना से ललचाई दृष्टि उसके शोक-कातर मुख पर डाली। उसने ऑसू पोंछ डाले। चुपचाप चिट्ठियाँ इकठ्ठी करके गॉठ बाँधी, और फिर उठकर दूसरे कमरे में चली गई। क्षण भर बाद आकर फिर बोली “कुछ पियोगे?”

मैंने वास्तविक अर्थ न समझ कर कहा “नहीं, प्यास नही है।"

उसने क्षण-भर ठहर कर कहा "कुछ पीते हो या नहीं?"

मैं अब समझा, और कहा “नही कभी नहीं पीता।"

उसने और निकट आकर कहा "खर्च नहीं करना होगा, घर में है। लाऊँ-थोड़ी पियो।”

इतनी देर बाद मुझे स्मरण आया कि यहाँ जो मैं वेफिक्री से पलंग पर बैठा शाही ठाठ से बाते कर रहा हूँ, सो गाँठ में तो फूटा पैसा भी नहीं। अब यहाँ से बिना कुछ दिए जाना कितना जलील काम होगा। यह सोचते ही मैं एकदम उठ खड़ा हुआ, और कहा "अच्छा, अब चला, फिर कभी आऊँगा।"

उसने मृदुल स्वर मे कहा--"यही हाल उनका था। कभी नहीं पीते थे, पीने को कहती थी, तो उठ कर चल देते थे। अच्छा, मत पियो, मगर जाओ मत। नाराज़ मत हो।" और वह एकदम आगे बढ़ कर मेरे ऊपर गिर पड़ी, जैसे बहुत-सी फूल-मालाएँ किसी ने ऊपर फेक दी हों। और, मैंने आत्मविस्मृत होकर उसे कसकर छाती से लगा लिया। मैंने तन-मन से द्रवित होकर कहा "इतना दर्द, इतना दुःख, इतना प्रेम लिए तुम इस गदे घर मे बैठी हो सजनी।", और फिर मैंने उसके अनगिनत चुम्बन ले डाले। शिथिल-गात होकर मैं पलॅग पर पड़ रहा। उसने धीरे से मेरे वाहु-पाश से पृथक् होकर कहा-"नाराज़ मत होना- तुम इजाजत दो, तो मैं जरा-सी पीलूँ। न पिऊँगी, तो तुम से बात भी न कर सकूँगी।