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आवारागर्द



मैं तो पहले ही अपनी आवारागर्दी की बात कह चुका हूँ। कहने को एक ही बात रह गई थी, वह यह कि स्त्री से यथार्थ परिचय जीवन में नहीं हुआ था। और, अब मैं सोच भी न सकता था कि स्त्री क्या है, उसका मूल्य क्या हैं।

एकाएक मैं जैसे चौक उठा। मैंने कहा “अब जाऊँगा मैं।"

उसने जैसे भयभीत होकर नेत्रों मे कहा “कहाँ? क्यों?"

मैंने कहा “मैने अभी खाना भी नहीं खाया है, माहराज बाट तकता होगा।"

“आह! तब तुमने कहा क्यों नहीं। खाना मैं मगवाती हूँ।" और, लाख मना करने भी उसने खाना मॅगवाया। मेरे सामने थाल रखकर वह पखा ले बैठी। मैने “यह नहीं, तुम्हें खाना होगा मेरे साथ।"

उसने कहा “तो पियो फिर तुम भी।" उसके नेत्रो मे एक गहरी वेदना थी। मैंने सहमति दी, और जीवन का दूसरा अध्याय शुरू हुआ। कौन उसे सोच सकता है। एक आवारागर्द के जीवन का दूसरा अध्याय-लोग जिसे सुहागरात कहते है। सचमुच वही।

और प्रातःकाल--जब आँखों मे शराब और नींद की खुमारी बढ़ रही थी, पैर लड़खड़ा रहे थे, शरीर झूम रहा था। अभी अधेरा था, उसने मुझे चूमा, कोट मेरे कंधो पर डाला। दोनों हाथों मे हाथ लेकर हंसी, और फिर कहा “नमस्ते।"

इतना तो मुझे होश था कि मैं खाली, बिना कुछ दिए, जा रहा हूँ। मैं लाज से मरा जा रहा था, पर मैने कुछ कहा नहीं। दो कदम आगे बढ़ाए। वह हाथ मे हाथ दिए साथ थी। उसने कान में होंठ लगाकर कहा “कल जल्द आना।"

और, फिर उसने द्वार पर आकर एक बार नमस्ते किया। वह हँसी, उसका पीला और सूखा चेहरा, वेदना पूर्ण, गहन आँखें,