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आवारागर्द


उस हँसी की आभा से जैसे दिप गईं।।

मैं बोला नहीं, बोल सका नहीं, उसी भाँति लड़खड़ाता हुआ- ऊषा से अलोकित एकांत सड़क पर लुढ़कता चला-जैसे स्वप्न मे चल रहा होऊँ। ओह, कैसी अभूतपूर्व, सुखद रात रही वह।

[३]

दो मास ऐसे बीत गए, जैसे खेल हो गया हो। हाँ, मैंने एक पैसा भी नहीं दिया। उस नारी के हृदय का मैंने संपूर्ण अध्ययन कर डाला। उसके प्रियतम के संपूर्ण खत पढ़ डाले। वह भी डॉक्टर था, मेरे जैसा अवारागर्द नहीं, प्रतिष्ठित सिविल सर्जन। उसके बीवी थी, बच्चे थे, उसने इस प्रेम लतिका को पत्नी की ही भाँति घर में रक्खा था। वह उसकी पत्नी के साथ खाती, सोती, रहती और पत्नी ही समझी जाती थी। उसने मुझसे एकएक दिन की बाते कहीं। अपने छः वर्ष के स्वप्न-सुख के मधुर संस्मरण कहती हुई वह हँसी, रोई और नाची, उन्माद में आवेशित होकर।

मैं दिन-भर अपने सेठ के यहां रहता--कहना चाहिए सोता, और सध्या होते ही झूमता हुआ वहाँ आता, जहाँ सुखद सेज़, गर्म खाना, उन्मादक मद्य, मृदुल नारी एक साथ ही उपस्थित थी-सब झझटों और खटपटों से रहित। एक यंत्र की भाँति मैं उस सुख-सागर में डूब जाता। खाता-पीता, सिगरेट पीता, और कहने न कहने योग्य क्या-क्या करता न करता।

दिन बीतते गये, और एक बोझ मेरे हृदय पर लदता गया। मैंने उसे कभी कुछ नहीं दिया। अभागिनी, असहाय नारी मुझे कहाँ से खिलाती-पिलाती है? कुछ देना तो होगा ही। परंतु कहाँ से? मैं जानता था, मेरा साथी सेठ कहाँ रुपए-पैसे रखता है। मैं सेठानी के जेबरों के रखने की जगह भी जानता था। सब मेरा विश्वास करते थे। मेरी रात की गैरहाजरी भी