पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/२५

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92 आवारागर्द मैंने ऑस्खे पोंछी, फिर मलीं और ऑखे फाड़-फाड़ कर बहिन को देखने लगा। बहिन ने कहा “भैया, क्या तुम्हारा सिर फिर गया है ?" "नो तुम मरी नही हो ?” मै धम्म से कुर्सी पर बैठ गया। वहिन जल्दी से एक गिलास शरवत वना लाई और जवर- दस्ती मुझे पिला दिया। फिर हँसकर कहा “अब देखो, जिन्दी हूँ या नहीं।" मैने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और कहा-"बेशक तुम ज़िन्दी हो-मगर" "मगर क्या ?" "जीजा जी कहाँ हैं" "वे एक बरात में गये हैं।" “यहाँ कब आये थे" "अभी सुबह ही तो गये हैं।" "वे यहाँ रोज़ आते है ?" "आज-कल दस्तर में काम बहुत है, इसीसे अक्सर रातको वहीं रह जाते हैं। आज-कल नौकरी का मामला ऐसा ही है भैया।" अब मै मामला कुछ-कुछ समझा, मैने कहा “जीजा जी ने तो खेल अच्छा खेला। खैर देखा जायगा, तुझे अभी मेरे साथ चलना होगा। अभी इसी दम ।" "कहाँ" "घर ।” "क्यों ? क्या बात है ?" "कुछ बात ही है, तू तैयार हो, नीचे मोटर खड़ी है।" "लेकिन वे तो घर पर हैं नहीं।" "तू चल तो सही।" a