बस, मै उसे ले सीधा गाँव पहुंचा। बहिन को देखते ही पिता जी ने छाती से लगा लिया। मैने कहा "पिता जी, यह सारी कारिस्तानी नई शादी करने की है। जल्दी चलो, शादी रुकवानी होगी।" बस हम लोग गॉव के दो तीन आदमियों को ले बहिन को साथ कर, सीधे औरंगाबाद जा धमके।
(३)
"फिर क्या हुआ?"
"जो होनी थी, वही हुआ।"
"यानी?"
"बारात चढ़ चुकी थी। बरोठी हो रही थी, पकवान बन रहे थे। बैड बज रहे थे। बन्दा मुसकरा रहा था। दिल धड़क रहा था कि सब गुड़ गोबर हो गया। सालिगराम घर वाली और सुसर साहब को ले धूमधाम से जा धमके। रंग में भंग पड़ गया। हमारे नये सुसर साहब जरा भलेमानुस थे। वे तो सोचते ही रहे, पर हमारे नये तीनों साले और सालिगराम चीते की तरह झपट पडे। मोहर-बोहर तोड़ डाला। घोड़ी से उतार, जामा फाड़, लात घूँसों से वह पूजा की कि यह देखो।" रामनाथ ने कुरता उघाड़ अपना बदन दिखा दिया। जगह-जगह नीलै दाग पड़े थे। एक घूसा ऑख पर भी पड़ा था, मगर आँख फूटी नहीं, बच गई थी।
यार लोग अब ज़ब्त न कर सके। वेतहाशा हॅस पडे। परन्तु रामनाथ निर्विकार रूप से सिगरेट जलाकर चुपचाप पीने लगे।
वलवीर ने कहा—"यह आँख पर भी शायद घूंसा लगा है, क्यों?"
"हॉ, छोटे साले के दस्तखत हैं। पता नहीं, हाथ था। कि हथौड़ा, देहाती है साला। अजी बानक ही बिगड़ गया। और दो घण्टे की बात थी कि जय गंगा। फिर यही साले पैर पूजते।"