पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/२७

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२६ आवारागर्द दोस्त ने कहा “खैर हुई ऑख बचगई। पर यार यह बुरा हुआ। मगर यह सब तुम्हारा ही गधापन है। तुम कहते हो कि हम गधे हैं, पर हम कहते हैं, तुम गधे हो।" "मैं गधा क्यों हूँ ?" "इसलिए कि यारों को नहीं ले गये । यार लोग गये होते तो तुम्हारी ऐसी पूजा होना क्या मजाक थी ? ले लेकर हाकी-स्टिक जो टूट पड़ते तो कयामत वर्षा कर देते और लाखों में ब्याह रचा कर आते " एक ने कहा--"मगर यार, तुम घरवाली और पुराने साले सुसरों को देखकर झेप क्यों गये ? कह देते-तुम भी मुकर्रर रहो, ये भी रहें । विशाल उदार हिन्दू-धर्म मे सब के लिये जगह है, अग्रेजों ने भी क़ानून में दरवाजे खिड़कियों छोड़ रखीं हैं।" “मैने बहुत कहा यार, मगर साले लोगों ने अधेर मचा दिया । समझदार तो थे नहीं, बस लगे चरनदास से पूजा करने ! एक तो देहाती, दूसरे जवान हट्ट कट्टे, तीसरे उनका घर । लाचारी हो गई। दोस्तों ने मछे मरोड़ी और आस्तीने चढ़ाई-"वाह यार, चलो एक बार फिर । लाखों मे शादी कराये । नही तो डोला उठा लावे । भला जिसका तेलबान चढ़ गया उसकी शादी कही और हो सकती है " रामनाथ का चेहरा सफेद हो गया। सिगरेट फेंक कर उसने कहा--"वह मौका अब नहीं रहा। दोनों सुसरों ने मिल मिला- कर झगड़ा खतम कर लिया । सुसर नम्बर २ कहने लगे--'मेरी इज्जत अब कैसे बचे ? इसी मंढे पर लड़की की शादी अब कैसे हो ?' सुसर नम्बर १ बोले- 'आपकी इज्जत हमारी इज्जत है। मेरा लड़का हाजिर है।' झट देखते-देखते पाजी साले को जामा