पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/३४

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वाक्टर साहव की घडी था। उनके वाप-टादों ने मराठों की लड़ाई में कैसी-कैसी वीरता दिखाई थी- वे सब बड़ी दिल-चस्पी से सुनाया करते थे। वे बहुत कम लोगों से मिलते थे, सिर्फ मुझी पर उनकी भारी कृपा दृष्टि थी। जब भी वे अवकाश पाते आ बैठते थे। बहुधा शिकार को साथ ले जाते थे। और हफ्ते में एक बार तो विना उनके यहां भोजन किये जान छुटती ही न थी। उनके परिवार मे मै ही इलाज किया करता था। मैं तो मित्रता का नाता निवाहना चाहता था और उनसे कुछ नही लेना चाहता था, पर वे विना दिये कभी न रहते थे। वे हमेशा मुझे अपनी औकात और मेरे मिहनताने से अधिक देते रहे । मेरे ऊपर उन्होंने और भी बहुत अहसान किये थे, यहां तक कि रियासत में मेरी नौकरी उन्होंने लगवाई थी और महाराज आलीजाह की कृपा दृष्टि भी उन्ही की बदौ- लत मुझ पर थी। "एक दिन सदा की भॉति वे इसी बैठकखाने में मेरे पास बैठे थे। हम लोग बडे प्रेम से धीरे-धीरे बाते कर रहे थे। वास्तव में बात यह थी कि मै उनका बहुत अदब करता था, उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था, फिर मुझ पर तो उनके वहुत से अहसान थे। एकाएक मुझे जरूरी 'कॉल' आ गई। पहले तो सूबेदार साहव को छोड़कर जाना मुझे नहीं रुचा परन्तु जब उन्होंने कहा कि कोई हर्ज नही, आप मरीज को देख आइये, मै यहा बैठा हूँ तब मैने कहा---'इसी शर्त पर जा सकता हूँ कि आप जायें नहीं।' तो उन्होंने हँस कर मजूर किया- और पैर फैलाकर मजे मे बैठ गये। "मैने झटपट कपडे पहिने, स्टेथस्कोप हाथ में लिया और रोगी देखने चला गया। रोगी का घर दूर न था। भटपट ही उससे निपट कर चला आया। देखा तो सूबेदार साहव सोफे पर