पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/३६

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डाक्टर साहब की घड़ी ३५ परन्तु मेरा सिर्फ एक ही नौकर था। वह बहुत पुराना और विश्वासी नौकर था । गत पन्द्रह वर्षों से वह मेरे पास था, तब से एक वार भी शिकायत का मौका नहीं दिया। फिर इतनी असाधारण चोरी वह करने का साहस कैसे कर सकता था ? पर सूबेदार साहब उससे बराबर जिरह कर रहे थे और वह बराबर मेज पर उंगली टेक-टेक कर कह रहा था 'यहाँ उसने झाड़-पोंछ । कर घड़ी अपने हाथ से सुबह रक्खी है।' मै ऑखे छत पर लगाये सोच रहा था कि घडी आखिर गई तो कहाँ गई ? एकाएक सूवेदार साहब का हाथ उनकी पगड़ी पर जा पड़ा उसकी एक लट ढीली सी हो गई थी, वे उसी को शायद ठीक करने लगे थे। परन्तु, कैसे आश्र्चय की बात है, पगडी के छूते ही वहीं मधुर तान पगड़ी मे से निकलने लगी । पहिले तो मै कुछ समझ ही न पाया। नौकर भी हक्का-बक्का होकर इधर-उधर देखने लगा । सूबेदार साहब के चेहरे पर घबराहट के चिन्ह साफ दीख पडने लगे। क्षण भर बाद ही नौकर ने चीते की भॉति छलॉग मारकर सूवेदार साहब के सिर पर से पगड़ी उतार ली और उससे घड़ी निकाल कर हथेली पर रखकर कहा- 'यह रही हजूर आपकी घड़ी । अब आप ही इन्साफ कीजिए कि चोर कौन है ?' उसके चेहरे क नसे उत्साह से उमड़ आई थीं और ऑखे आग वरसा रही थी । वह जैसे सूबेदार साहब को निगल जाने के लिये मेरी आज्ञा मॉग रहा था। सव माजरा में भी समझ गया। सूवेदार साहब का चेहरा सफेद मिट्टी की माफिक हो गया था और वे मुर्दे की भॉति आँखे फाड़-फाड़ कर मेरी तरफ देख रहे थे। कुछ ही क्षणों मे मै स्थिर हो गया। मैने लपक कर खूटी से चाबुक उतारा और एकाएक पॉच-सात नौकर की पीठ पर जमा दिये। घडी उसके हाथ से मैने छीन ली।