पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/४०

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मरम्मत ३६. . लाट साहेब हैं, एक गाड़ी क्या काफी नहीं है उनके वे दोस्त भी कोई आवारागर्द मालूम देते हैं, छुट्टियों में अपने घर नन जा कर पराए घर आ रहे हैं, ईश्वर जाने उनका घर है भी या नहीं।" रजनी आप ही आप बड़बड़ा रही थी। सुरज निकल आया था, धूप फैल गई थी, पर वह अभी बिछौने ही पर पड़ी थी। उसके कमरे मे कोई नौकर-नौकरानी नहीं आई थी, इसी से वह बहुत नाराज हो रही थी । एक हल्की फीरोजी ओढ़नी उसके सुन- हरे शरीर पर अस्त-व्यस्त पड़ी थी, चिकने और घूघर वाले बाल चॉदी के समान मस्तक पर बिखर रहे थे। बड़ी बड़ी आंखे भरपूर नींद का सुख लूट कर थोड़ी लाल हो रही थी । गुस्से से उसके होठ सम्पुटित थे, भौहो मे वल थे, वह पलग पर औधी पड़ी थी एक मासिक पत्रिका उसके हाथों मे थी। वह तकिये पर छाती रक्खे अनमने भाव से उसके पन्ने उलट रही थी। रजनी की माँ का नाम सुनन्दा था । खूब मोटी ताजी, गुद- गुदी ठिगनी स्त्री थी। जब वे फुर्ती से काम करतीं तो उनका गेद की तरह लुढ़कना एक अजव बहार दिखाता था। वह एक अच्छी सुगृहिणी थी, दिन भर काम मे लगी रहती थी। उनके हाथ बेसन में भरे थे और पल्ला धरती मे लटक रहा था। उन्होंने जल्दी-जल्दी आकर कहा “वाह री रानी बेटी, तेरे ढग तो खूब हैं। भैया घर मे आरहे हैं, दस काम अटके पडे है और रानी जी पलङ्ग पर पड़ी किताब पढ़ रही हैं। उठो जरा, रमिया हरामजादी आज अभी तक नही आई। जरा गुसलखाने मे धोती, गमछा, साबुन सब सामान ठिकाने से रख दो-भैया आकर स्नान करेगे । उठ तो बेटी । अरी पराये घर तेरी कैसे पटेगी?" रजनी ने सुनकर भी मॉ की बात नहीं सुनी, वह उसी भॉति