पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/४२

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मरम्मत न सिर खाती हूँ, अरी तेरा सिर तो इन किताबों में ही खा डाला । मां को ऐसे जवाब देती है। दोपहर होगया, पंलग से नीचे पैर नही देती । भैया के आने से पहिले माथे पर बल पड़ गये हैं।" रजनी ने वक्र दृष्टि से मॉ की ओर देखकर गुस्से में आकर छाती के नीचे का तकिया दीवार मे दे मारा, मासिक पत्रिका फेक दी। उसने तीखी वाणी से कहा-"मै भी तो आई थी छः महीने मे, तब तो इतनी धूम नही हुई थी।" • “तू बेटी की जात है-बेटी-वेटा क्या बराबर हैं ?" "बराबर क्यों नही हैं ?" "अब मै तुझसे मुंहजोरी करू कि काम ?", "काम करो । बेटियां पेट से थोड़ी पैदा होती हैं। घूरे पर से उठा कर लाई जाती हैं। उनकी प्रतिष्ठा क्या, इज्जत क्या, जीवन क्या ? मर्द दुनियां मे बड़ी चीज है। उनका सर्वत्र स्वागत है।" रजनी रूठ कर शाल को अच्छी तरह लपेट कर दूसरी ओर मुंह करके पड़ रही, गृहिणी बकझक करती चली गई। - उनका नाम था राजेन्द्र और उनके मित्र का दिलीप । दोनों. मित्र एम० ए० फाइनल में पढ़ रहे थे। बजते-बजते दोनों मित्रों को लेकर फिटिन द्वार पर आ लगी। घर मे जो दौड़-धूप थी वह और भी बढ़ गई। पिता को प्रणाम कर राजेन्द्र मित्र के साथ घर मे आये। माता ने देखा तो दौड़ कर ऐसी लपको जैसे गाय बच्चे को देख कर लपकती है । अपने पुत्र को छाती से लगा अश्रु मोचन किया। मुख, सिर, पीठ पर हाथ फेरा । पत्र न भेजने के, अम्मा को भूल जाने के, दो चार उलाहने दिये। राजेन्द्र ने सब के बदले में हँस कर कहा “देखो अम्मॉ, इस बार मैने खूब दूध मलाई .