पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/४५

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४४ आवारागद . तीनों के बैठ जाने पर राजेन्द्र ने कहा "रजनी अभी तक तुम अपने कमरे में क्या कर रही थीं ?" "मै विद्रोह कर रही थी।" रजनी ने तिरछी नजर से भाई को घूर कर और ओठों पर वैसी ही मुस्कान भर कर कहा। "बाप रे, विद्रोह, जरा सोच समझ कर कोई बात कहना, दिलीप के पिता सी० आई० डी० के डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट है।" "मै तो खुला विद्रोह करती हूँ, गुप्त पडयन्त्र नहीं।" "किसके विरुद्ध यह खुला विद्रोह है ?" "तुम्हारे विरुद्ध।" "मेरे विरुद्ध ? मैने क्या किया है!" "तुम पुरुप हो न?" "इस मे मेरा क्या अपराध है, मुझे रजनी बनने में कोई उन नही, यदि तुम राजू बन जा सको।" "मै पुरुप नहीं बनना चाहती, पुरुषो के विरुद्ध विद्रोह किया चाहती हूँ।" "किसलिये ?" "इसलिये कि पुरुप क्यों सब बातों मे सर्व-श्रेष्ठ बनते हैं, स्त्रियां क्यों उनसे हीन समझी जाती हैं ?" दिलीप अब तक चुप बैठा था, अब वह जोश मे आकर हथेली पर मुक्का मार कर बोला "नेवो, रज्जी मै तुम्हारे साथ हूँ।" "मगर मै तुम दोनों का मुकाबिला करने को तैयार हूँ।" "पुरुप श्रेष्ठ हैं और श्रेष्ठ रहेंगे।" राजेन्द्र ने पैतरा बदल कर नकली 'क्रोध और गम्भीरता से कहा । फिर उसने जरा हॅस कर कहा “मगर यह विद्रोह उठा कैसे रजनी ?" रज्जी ने नथुने फुला और भौहों मे बल डाल कर कहा-- "कल से अम्मॉ ने और बाबू जी ने घर भर को सिर पर उठा