पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/५०

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मरम्मत ४६ मिस्टर दिलीप ने मुस्कुरा कर कहा--"तुम्हारी जीजी इस तुच्छ परदेशी का इतना ख्याल करती है- इसके लिए उन्हे धन्यवाद देना।" दुलारी ने हंसकर और साड़ी का छोर आगे बढ़ाकर कहा "बाबू जी हम गॅवार दासी यह बात नही जानतीं, यह तो आप ही लोग जाने कहिए तो मै जीजी को बुला लाऊँ आप उन्हें जो कहना हो कहिए।" दिलीप हंस पड़े। उन्होंने कहा-"तुम बडी सुघड़ औरत हो।" दुलारी ने साहस पाकर कहा-"बाबूजी आप हमे अपने घर ले चलिए, बहूजी की खिदमत करके दिन काट दूंगी।" दिलीप महाशय ने जोर से हंसकर कहा-"मगर बहूरानी भी तो हों, अभी तो हम ही अकेले हैं।" इस पर दुलारी ने कपार पर मौहें चढ़ाकर कहा--बाप रे, गजब है, आप बड़े लोंगो की भी कैसी बुद्धि है। भैया भी क्वॉरे, जीजी भी क्वॉरी, आप भी क्वारे।" भूमिका आगे नही चली । गृहिणी ने दुलारी को बुला लिया। रजनी ने सब सुना तो मुस्कुरा दिया । दोपहर की डाक आई। दुलारी ने पूछा, जीजी की कोई चिट्ठी है। दिलीप ने साहस पूर्वक मासिक पत्रिकाओं तथा चिट्रियों के के साथ अपनी चिट्ठी भी मिला कर दुलारी के हाथ भीतर भेज दी और अब वह धड़कते कलेजे से परिणाम की प्रतीक्षा करने लगे। पत्र को पढ़कर रजनी पहिले तो तनिक हॅसी। फिर तुरन्त ही क्रोध से थर थर कांपने लगी। पत्र मे कवित्व पूर्ण भाषा मे प्रेम के चार का वर्णन किया गया था । एकाएक उनके मन में जो