पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/५१

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५० आवारागर्द प्रेम रजनी के लिये उदय हुआ और वे रजनी के प्रति कितने आकृष्ट हुए यह सब उसमे लिखा था। वे रजनी के बिना जीवित नही रह सकेगे। विरक्त हो जायगे या जहर खा लेगे, यह भी लिखा था। अन्त मे हाथ जोड़ कर सब बाते गोपनीय रखने की प्रार्थना भी की थी। पत्र पढ़ने पर रजनी के होठ घृणा से सिकुड़ गये। वह सोचने लगी-यह पुरुप जाति जो अपने को स्त्रियों से जन्मत. श्रेष्ठ समझती है, कितनी पतित है। इन पढे लिखे लोगों मे भी आत्म-सम्मान नहीं। यह अपनी ही दृष्टि मे गिरे हुए हैं । रजनी ने पत्र को फेक दिया ! वह पलङ्ग पर लेट कर चुप- चाप वहुत सी वातों पर विचार करने लगी। सन्ध्या होने पर दिलीप महाशय आसामी मंगे का कुतो पहिन घूमने को निकले । रजनी ने देखा उनका मुह सूख रहा है, और ऑखे ऊपर नही उठ रहीं हैं। वे अपराधी की भांति चुपचाप खिसक जाना चाह रहे हैं। रजनी ने पुकार कर कहा“कहां चले दिलीप बाबू, अभी तो बहुत धूप है संध्या को ज़रा जल्दी लौटियेगा, हम लोग सिनेमा चलेगे।" रजनी की बात सुनकर ये रजनी के भाई के मित्र एम० ए. पास सभ्य महाशय ऐसे हरे होगये जैसे वर्षा के छींटे पड़ने से मुर्भाए हुए पौधे खिल जाते है । उन्होंने एक वांकी अदां से खड़े होकर ताकते हुए कुछ कहा । उसे रजनी ने सुना नही, वह अपना तीर फेंक कर चली गई। (६) रजनी ने विषम साहस का काम किया। दिलीप महाशय झटपट ही लौट आये। आकर उन्होंने उत्साहपूर्ण वाणी में रजनी