पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/६४

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चिट्ठी की दोस्ती ६३ मेरे पास कोई क्यों आने लगा ? महीनो के महीने बीत जाते हैं, मै अकेला अपने घर मै उदास, सुस्त बैठा कुछ सोचता रहता हू। सोचने की बहुत-सी बातें नही हैं, सिर्फ यही कि मनुष्य जीता क्यों है ? काम-काज के झंझट में पिसता क्यों है पाप-पुण्य के जञ्जाल में उलझता क्यों है ? अपनी और पराई दुनिया बनाता क्यों हैं ? कोई २५ वर्प हुए-जव से मन्नू की मॉ मरी है, ऐसा मालूम होता है कि ससार मे हमेशा सन्ध्या काल ही रहता है, प्रभात कभी होता ही नहीं, परन्तु एम० ए० फाइनल करने के बाद जब एक ही हफ्ते बाद मुन्ना भी एकाएक चल बसा, तब से रात ही रात नजर आती है, जीवन की इस अँधेरी रात में सूरज और चॉद, टिमटिमाते दिये और इष्टमित्र सव दूर के चम-चम चमकते तारे से प्रतीत होते हैं। मैं मशीन की भॉति कालेज से घर और घर से कालेज गत २५ बरस से जाता-आता रहा हूँ। और भी कही दुनिया है, यह मै अव भूल- सा गया हूँ। परन्तु मिस्टर लाल की बात दूसरी है, उनके सीने मे एक धड़कता हुआ हृदय है, जीवन उनके लिये आशा और उल्लास से परिपूर्ण एक ज्योति की लौ है, इसीसे उनके आने से मुझ से भी जैसे जीवन का कुछ स्पन्दन आ गया है, वे जव वाते करते- करते खिलखिला कर हँसते हैं तब मेरे भी सूखे होठों में हँसी की एक अनभ्यस्त रेखा फूट पड़ती है और मेरे गालों की झुर्रियां जैसे मुखरित हो उठती है। ने जव प्रेम के एक से एक बढ़ कर अनोखे साहसपूर्ण किस्से सुनाये, तो उन्हें सुन-सुन कर मन कैसा कुछ हो उठा। मैने कहा-" मिस्टर लाल, प्रेम इतना सुलभ और जीवन के इतना निकट है, यदि यह मुझे मालूम होता तो ..?' 'तो'- लाल