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आवारागर्द


जाना, दुःख शोक, चिंता और निराशा को पास न फटकने देना मेरी आवारागर्दी का खास रूप है, औरों की और जाने।

मन में जो सनक समाई, तो काश्मीर जा पहुँचा। कैसे? यह आप सभ्य पुरुष न समझ पाएंगे। फिर भी संक्षेप मे सुनिए रेल मे पूरा सफर किया बिना टिकिट। अक्सर टिकिट चेकर को चकमे दिए कभी पखाने में घुसकर और कभी दूसरी ओर आँख बचाकर, कूदकर। कभी पकड़े भी गए, तो हँस दिये, जेबे उलटकर दिखा दी। किसी ने गालियां देकर छोड़ दिया, किसी ने गर्दनिया देकर उतार दिया, किसी ने पुलिस के हवाले किया। मैं जानता हूँ, दुनियां में पद-पद पर विघ्न आते हैं, पर धुन के पक्के लोगों के सामने वे ठहर नहीं पाते। मेरे सामने भी ये विघ्न न ठहर सके। सिर्फ इतना हुआ, दो-चार दिन देर करके पीड़ी जा उतरा। आधी मंज़िल फतह हो गई। वहाँ से चला पैदल। रास्तेभर चट्टियों पर दूध, दही, पूरी और चाय-पानी का सामान बिक रहा था, पर अपने पास तो पैसा नहीं था। जब किसी भारी-भरकम को खाते देखता, सामने जाकर मुस्करा देता, और वह मुझे प्रायः खिलापिला देता। कभी गाकर, कभी हाथ देखकर पैसे बनाए। एक-दो बार बोझा भी ढोया, और सिर्फ एक बार चोरी की। आधा रास्ता पार हो गया।

एक दूकान पर बैठा गर्मागर्म पूरी-तरकारी उड़ा रहा था। सात पैसे जेब में थे, उनमे से छः पैसे की पूरी और सातवे का पान खा डालने का इरादा था। एक आदमी घबरा कर आया, और दूकानदार से पूछने लगा--"क्या पास मे कोई दवा-दारू की दूकान है? हमारे सेठ खड्ड मे गिर गए हैं, हड्डी-पसली चूरचूर हो गई है। पास मे कोई डाक्टर हो, तो फीस चाहे जो देनी पड़े, उसे बुलवा दीजिए।"

आदमी नवयुवक था। टूटी-फूटी हिंदी बोल रहा था। मैंने