पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/७०

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, चिट्ठी की दोस्ती ६६ ठीक समय पर जवाब आगया। सेण्ट की भीनी मन-मोहक सुगन्ध से वह पत्र शराबोर था। उसमें जैसे किसी उन्मत्त हृदय ने लिखा था-'अरे । तुम इतने सुन्दर हो प्रिय । न केवल आकृति से ही, प्रत्युत हृदय से भी मै तुम्हारी मोहिनी-छवि और उससे भी अधिक मधुर-भाव, जो तुम्हारे प्रेमी हृदय के कम्पन हैं, पाकर कृत-कृत्य होगई हूँ। मेरी आत्मा तृप्त होगई है। मेरे प्रिय मित्र, मेरी धृष्टता क्षमा करो, मुझे साफ-साफ लिखो, क्या तुम विवाहित हो ? क्या तुमने अभी तक किसी स्त्री से प्रेम किया है ? क्या तुम कुछ आशान्वित हो या तुम निराश हो चुके हो ? मेरे प्यारे प्रोफेसर, मुझे तुम कुछ कटु सत्य भी तो कहने दो, जब मैत्री हुई तब भेद क्या ? तुम्हारी ये सुन्दर आँखें और मदभरे होठ जब गौर से देखती हूँ तो मुझे उनसे कुछ भय, कुछ आशङ्का-सी प्रतीत होती है, उनमें कैसा कुछ चोचला छिपा है। नेत्रों में तुमने क्या सच-मुच ही कोई भेद नही छिपा रखा है ? परन्तु मै कदाचित् तुम्हारे साथ अन्याय कर रही हूँ। तुम साधारण पुरुष तो नहीं हो । एक वैज्ञानिक, एक अन्वेपक और एक प्रोफेसर हो । ओह ! मै नहीं जानती कि तुम मुझे कैसे क्षमा कर सकोगे, परन्तु मै सिर्फ यह चाहती हूँ कि मै शीघ्र से शीघ्र तुम्हारे हृदय के निकट आऊँ, परन्तु ये आखे ? जाने दो मुझे तुम पर विश्वास करना चाहिए, मै तुम पर विश्वास करती हूँ। मेरे प्यारे प्रोफेसर । बिदा , परन्तु चिरकाल के लिए नहीं । मैं तुम्हें शीघ्र ही दूसरा पत्र लिखू गी, परन्तु तुम उसकी प्रतीक्षा मत करना, जल्द से जल्द पत्र लिखना, अपने रिसर्च की फाइलें भी भेजो, मै उनका अध्ययन किया चाहती हूँ। तुम्हारी, सूफ़िया" इन 4