मैंने बारम्बार पत्र लिखा, सूफ़िया की कोमल भावुक मूर्ति हूबहू जैसे मेरी आँखों के आगे आ खड़ी हुई। मिस्टर लाल ने कई बार लिख कर मुझसे पूछा कि क्या जवाब आया है? पर मैंने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया। इस सरला-तरला बालिका को ठगने का मन मे बड़ा अनुताप हो रहा था। परन्तु जो हो गया सो हो गया। मैंने यह भेद किसी से नहीं कहा।
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दिन बीतते चले गये। महीने और वर्ष बीत गये। हम लोगों की मित्रता गम्भीर प्रेम मे परिवर्तित हो गई। सूफ़िया मुझसे मिलने को विकल रहने लगी। उसने अनेक बार मुझे यूरोप की यात्रा करने का आमन्त्रण दिया। खर्च के सम्बन्ध मे निश्चित रहने का भी सङ्केत किया; पर हाय, मैं अपने शरीर और चेहरे को कहाँ छिपाऊँ? उसके साथ जो मैंने यह प्रवञ्चना की थी, वह जैसे दिन पर दिन मेरे ऊपर बोझ होकर लदने लगी। उसका बोझ बढ़ता ही गया और जैसे मै उसके नीचे पिसता गया। मिस्टर लाल से कई बार मुलाकात हुई; उन्होंने मुझसे अनेक बार सूफ़िया के सम्बन्ध मे पूछा; पर हमेशा मैंने उन्हें टाल दिया। सूफ़िया और अपने बीच किसी को आने देना मुझे सहन न था। 'मेरी ईर्षा और क्रोध के सब से बड़े भाजन मिस्टर लाल ही थे। उनकी ही मोहक और वासनामयी मूर्ति सूफ़िया के हृदय मेरा प्रतिनिधित्व करती थी। हाय, आप हीं कहिए कि मैं इसे कैसे सहन कर सकता था? लाल अब मुझे फूटी आँखों भी नहीं सुहाते थे, वे ही मेरे सब से अधिक प्रतिस्पर्धी हैं। सूफ़िया को मैं जो पत्र लिखता था, उसमे मैं अपनी आयु मर्यादा को भूल जाता था। हम दोनों अब एक अटूट प्रेमी थे। हम दोनों ही अब परस्पर मिलने के लिए अत्यन्त व्याकुल थे, मैं इस बात को